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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Saturday, February 15, 2014

सगुण के बिना निर्गुण का निरूपण संभव नहीं है




 

सगुण के बिना निर्गुण का निरूपण संभव नहीं है

ग्यान कहै अग्यान बिनु तम बिनु कहै प्रकास|
निरगुन कहै जो सुगन बिनु सो गुरु तुलसीदास||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि जो अज्ञान का कथन किए बिना ज्ञान का प्रवचन करे, अंधकार का ज्ञान कराए बिना ही प्रकाश का स्वरूप बतला दे और सगुण को समझाए बिना ही निर्गुण का निरूपण कर दे, वह मेरा गुरु है कहने का तात्पर्य यह है कि अज्ञान के बिना ज्ञान, अंधकार के बिना प्रकाश और सगुण के बिना निर्गुण की सिद्धि नहीं हो सकती, निर्गुण कहते ही सगुण की सिद्धि हो जाती है|

इंद्रियों की सार्थकता

कहिबे कहं रसना रची सुनिबे कहं किये कान|
धरिबे कहं चित हित सहित परमारथहि सुजान||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास कहते हैं कि परमात्मा ने परमार्थ अर्थात भगवन् चर्चा करने के लिए जीभ बनाई, भगवद्गुणानुवाद सुनने के लिए कान बनाएं और प्रेमसहित भगवान का ध्यान धरने के लिए चित्त बनाया|

राम-प्रेम के बिना सब बिकार है

रसना सांपिनी बदन बिल जे न जपहिं हरिनाम|
तुलसी प्रेम न राम सों ताहि बिधाता बाम|


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि जो व्यक्ति श्रीहरि का नाम नहीं जपते, उनकी जीभ सर्पिणी के समान केवल विषय-चर्चारूपी विष उगलने वाली और मुख उसके बिल के समान है| जिनको राम में प्रीति नहीं है, उनके लिए तो विधाता बाम ही है अर्थात उनका भाग्य फूटा ही है|

हिय फाटहुं फूटहुं नयन जरउ सो तन केहि काम|
द्रवहिं स्रवहीं पुलकई नहीं तुलसी सुमिरत राम||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीहरि का स्मरण करके जो ह्रदय पिघल नहीं जाते वे ह्रदय फट जाएं, जिन नेत्रों से प्रेम के आंसू नहीं बहते वे नेत्र फुट जाएं और जिस शरीर में रोमांच नहीं होता वह शरीर जल जाए अर्थात ऐसे निकम्मे अंग किस काम के|

रामहि सुमिरत रन भिरत देत परत गुरु पायं|
तुलसी जिन्हहि न पुलक तनु ते जग जीवत जायं||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्रीरामचंद्रजी का ध्यान होने के समय, धर्मयुद्ध में शत्रु से लड़ने के समय, दान देते समय और गुरु के चरणों में प्रणाम करते समय, जिनका शरीर विशेष हर्ष के कारण रोमांचिक नहीं होता, वे सब जगत में व्यर्थ ही जीते हैं|

ह्रदय सो कुलिस समान जो न द्रवइ हरिगुन सुनत|
कर न राम गुन गान जीह सो दादुर जीह सम||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु के गुणों को सुनकर जो ह्रदय द्रवित नहीं होता, वह ह्रदय पत्थर के समान कठोर और जो जीभ प्रभु के नाम का गुणगान नहीं करती, वह जीभ मेढक की जीभ के समान बेकार ही टर्र-टर्र करने वाली है|

स्रवे न सलिल सनेहु तुलसी सुनि रघुबीर जस|
ते नयना जनि देहु राम करहु बरु आंधरो||


तुलसीदासजी कहते हैं कि हे रघुबीरजी! मुझे भले ही अंधा बना दीजिए, परंतु ऐसी आंखें मत दीजिए जिनसे प्रभु का यश सुनते ही प्रेम के आंसू न बहने लगें|

रहैं न जल भरि पूरि राम सुजस सुनि रावरो|
तिन आंखिन में धूनि भरि भरि मूठी मेलिए||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि हे भगवान श्रीरामचंद्रजी! आपका सुयश सुनते ही जो आंखें प्रेम जल से पूरी तरह भर न जाएं, उन आंखों में तो मुट्ठियां भर-भरकर धूल झोंकनी चाहिए|

राम-नाम जप की महत्ता

चित्रकूट सब दिन बसत प्रभु सिय लखन समेत|
राम नाम जप जापकहि तुलसी अभिमत देत||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि भगवान श्रीरामचंद्रजी श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजी के साथ चित्रकूट में हमेशा निवास करते हैं| राम-नाम का जप करने वाले को वे मनचाहा फल प्रदान करते हैं|

पय अहार फल खाइ जपु राम नाम षट मास|
सकल सुमंगल सिद्धि सब करतल तुलसीदास||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि छ: मास तक केवल दुग्ध का आहार करके अथवा केवल फल खाकर राम-नाम का जप करो| ऐसा करने से हर प्रकार के सुमंगल ओर सब सिद्धियां करतलगत हो जाएंगी, अर्थात अपने-आप ही मिल जाएंगी|

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार|
तुलसी भीतर बाहेरहूं जौं चाहसि उजिआर||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि तू अन्दर और बाहर दोनों तरफ ज्ञान का प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहता है तो मुखरूपी दरवाजे की दहलीज पर रामनामरूपी मणिदीप रख दे, अर्थात जीभ के द्वारा अखण्ड रूप से श्रीरामजी के नाम का जप करता रहे|

हियं निर्गुन नयनन्हि सगुन रसना राम सुनाम|
मनहुं पुरट संपुट लसत तुलसी ललित ललाम||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि ह्रदय में निर्गुण ब्रह्मा का ध्यान, नेत्रों के सम्मुख सगुण स्वरुप की सुंदर झांकी और जीभ से प्रभु का सुंदर राम-नाम का जप करना| यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो| 'राम' नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण भगवान दोनों से बड़ा है| नाम की इसी महिमा को ध्यान में रखकर यहां नाम को रत्न कहा गया है तथा निर्गुण ब्रह्म और सगुण भगवान को उस अमूल्य रत्न को सुरक्षित रखने के लिए सोने का संपुट (डिबिया के निचे-ऊपर के भाग को) बताया गया है|

सगुन ध्यान रूचि सरस नहिं जिर्गुन मन ते दुरि|
तुलसी सुमिरहु रामको नाम सजीवन मूरि||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि सगुण रूप के ध्यान में तो प्रीतियुक्त रूचि नहीं है और निर्गुण स्वरूप मन से दूर है| ऐसी स्थिति में रामनाम स्मरणरूपी संजीवनी बूटी का सदा सेवन करो|

एक छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ|
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजी के नाम (राम) के दोनों अक्षरों में एक 'र' तो रेफ के रूप में सब वर्णों के मस्तक पर छत्र की भांति विराजता है और दूसरा 'म' अनुस्वार के रूप में सबके ऊपर मुकुट-मणि के समान विराजमान होता है|

नाम राम को अंक है सब साधन हैं सून|
अंक गएं कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामचंद्रजी का नाम अंक है और सब साधन शून्य (०) हैं| अंक न रहने पर तो कुछ भी हाथ नहीं आता, परंतु शून्य के पहले अंक आने पर वे दस गुने हो जाते हैं, अर्थात राम-नाम के जप के साथ जो साधन होते हैं, वे दस गुना अधिक लाभदायक हो जाते हैं, परंतु राम-नाम के बिना जो साधन होता है वह किसी भी तरह का फल प्रदान नहीं करता|

नामु राम को कलपतरू कलि कल्यान निवासु|
जो सुमिरत भयो भांग तें तुलसी तुलसीदास||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि भगवान श्रीरामचंद्रजी का नाम इस कलियुग में कल्पवृक्ष अर्थात मनचाहा फल प्रदान करने वाला है और कल्याण का निवास अर्थात मुक्ति का घर है, जिसका स्मरण करने से तुलसीदास भांग से अर्थात विषय मद से भरी और दूसरों को भी विषयमद उपजाने वाली साधुओं द्वारा त्याज्य स्थिति से बदलकर तुलसी के समान निर्दोष, भगवान का प्यारा, सबका आदरणीय और जगत को पावन करने वाला हो गया|

राम नाम जपि जीहं जन भए सुकृत सुखसालि|
तुलसी इहां जो आलसी गयो आजु की कालि||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि लोग जीभ से राम के नाम का जप करके पुण्यात्मा और सुखी-सम्पन्न हो गए, परंतु जो लोग इस राम-नाम जप में आलस्य करते हैं, उन्हें तो आज या कल नष्ट ही हुआ समझो|

नाम गरीबनिवाज को राज देत जन जानि|
तुलसी मन परिहरत नहिं घुर बिनिआ की बानि||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि गरीबनिवाज अर्थात दीनबंधु भगवान श्रीराम का नाम ऐसा है, जो जपने वाले को भगवान का परम भक्त जानकर राज्य अर्थात प्रजापति का पद या मोक्ष-साम्राज्य तक दे डालता है, परंतु यह मन ऐसा अविश्वासी और नीच है कि कूड़े के ढेर में पड़े दाने चुगने की गंदी आदत नहीं छोड़ता, गंदे विषयों में ही सुख ढूंढता है|

कासीं बिधि बसि तनु तजें हठि तनु तजें प्रयाग|
तुलसी जो फल सो सुलभ राम नाम अनुराग||


तुलसीदासजी कहते हैं कि काशीजी में (पापों से बचते हुए) विधिवत् निवास करके शरीर त्यागने पर और तीर्थराज प्रयाग में हठ से शरीर छोड़ने पर जो मोक्षरुपी फल मिलता है, वह रामनाम में प्रीत होने से सरलता से मिल जाता है| (यही नहीं, प्रेमपूर्वक रामनाम के जप से तो मोक्ष के आधार साक्षात् भगवान की प्राप्ति हो जाती है)|

मिठो अरु कठवति भरो रौंताई अरु छेम|
स्वारथ परमारथ सुलभ राम नाम के प्रेम||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि - मीठा पदार्थ (अमृत) भी हो और कठौता भरकर मिले| राज्यादि अधिकार भी प्राप्त हों और क्षेमकुशल भी रहे अर्थात अभिमान और विषय-भागों से बचकर रहा जाए और स्वार्थ भी सधे तथा परमार्थ भी सम्पन्न हो, ऐसा होना बहुत ही कठिन है, परंतु श्रीराम नाम के प्रेम से ये परस्पर विरोधी दुलर्भ बातें भी सुलभ हो जाती हैं अर्थात रामनाम में प्रेम होने से सम्पूर्ण सुख भी मिलते हैं और वे दुःख से रहित होते हैं, राज्य भी मिल सकता है और उसमें अभिमान तथा विषयासक्ति का अभाव होने के कारण गिरने की भी गुंजाइश नहीं रहती, पारमार्थिक स्थिति पर अचल रहते हुए भी राजकार्य किया जा सकता है और परमार्थ ही स्वार्थ बन जाता है|

राम नाम सुमिरत सुजस भाजन भए कुजाति|
कुतरुक सुरपुर राजमग लहत भुवन बिख्याति||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि नीच जाति या दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति भी भगवान राम के नाम का स्मरण मात्र करने से सुन्दर कीर्ति के पात्र हो गए|स्वर्ग के राजमार्ग (गंगाजी के तट) पर स्थित बुरे वृक्ष भी त्रिभुवन में ख्याति पा जाते हैं|

स्वारथ सुख सपनेहुं अगम परमारथ न प्रबेस|
राम नाम सुमिरत मिटहिं तुलसी कठिन कलेस||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि जिन लोगों को सांसारिक सुख स्वप्न में भी नहीं मिलते और परमार्थ में - मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग में जिनका प्रवेश नहीं है, भगवान श्रीरामनाम का स्मरण करने से उनके भी सभी कठिन कलेश विकार मिट जाते हैं|

मोर मोर सब कहं कहसि तू को कहु निज नाम|
कै चुप साधहि सुनि समुझि कै तुलसी जपु राम||


तू सबको मेरा-मेरा कहता है, परंतु यह तो बता कि तू कौन है? और तेरा अपना नाम क्या है? अब या तो तू इसके नाम और रूप के रहस्य को सुन और समझकर चुप्पी साध ले, 'मेरा-मेरा' कहना छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित हो जा या फिर प्रभु राम का नाम जप|

हम लखि लखहि हमार लखि हम हमार के बीच|
तुलसी अलखहि का लखहि राम नाम जप नीच||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी एक साधनहीन 'अलखिया' साधु जो केवल 'अलख-अलख' चिल्लाया करता था, उसे धिक्कारते हुए कहते हैं कि तू पहले स्वयं को जान, फिर अपने यथार्थ 'अपने' ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव कर| उसके पश्चात और ब्रह्म के बीच में रहने वाली माया को पहचान| अरे नीच! इन तीनों को समझे बिना तू उस अलख परमात्मा को क्या समझ सकता है? अत: 'अलख-अलख' चिल्लाना छोड़कर प्रभु के रामनाम का जप कर|

राम नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस|
बरषत बारिद बूंद गहि चाहत चढ़न अकास||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि जो भगवान राम के नाम का सहारा लिए बिना ही परमार्थ व मोक्ष की आशा करता है, वह तो मानो बरसते हुए बादल की बूंद को पकड़कर आकाश में चढ़ना चाहता है अर्थात जैसे वर्षा की बूंद को पकड़कर आकाश पर चढ़ना असंभव है, वैसे ही रामनाम का जप किए बिना परमार्थ की प्राप्ति असम्भव है|

तुलसी हठि हठि कहत नित चित सुनि हित करि मानि|
लाभ राम सुमिरन बड़ो बड़ी बिसारें हानि|


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी बड़े आग्रह के साथ नित्य-निरंतर कहते हैं कि हे चित्त! तू मेरी बात सुनकर उसे हितकारी समझ| राम का स्मरण करना ही बहुत बड़ा लाभ है और उसे भुला देने में ही सबसे बड़ी हानि है|

बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु|
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि तू कुसंगीत और चित्त के सभी बुरे विचारों का त्याग करके प्रभु श्रीराम में ध्यान लगा और उनके नाम 'राम' का जप कर| ऐसा करने से तेरी अनेकों जन्मों की बिगड़ी हुई स्थिति अभी सुधर सकती है|

प्रीति प्रतीति सुरीति सों राम नाम जपु राम|
तुलसी तेरो है भलो आदि मध्य परिनाम||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि तुम प्रेम, विश्वास और विधि के साथ नामापरधों से दूर रहते हुए बार-बार राम-राम नाम जपो, इससे तुम्हारा आदि, मध्य और अन्त तीनों ही कालों में कल्याण है|

दपंति रस रसना दसन परिजन बदन सुगेह|
तुलसी हर हित बरन सिसु संपति सहज सनेह ||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि रस (वह मिठास जिनका अनुभव रामनाम का उच्चारण करते समय होता है) और रसना (जीभ) पति-पत्नी हैं, दांत कुटुम्बी हैं, मुख सुंदर घर है, श्रीमहादेवजी के प्यारे 'रा' और 'म' - ये दोनों अक्षर दो मनोहर बालक हैं और सहज स्नेह ही सम्पति हैं|

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास|
रामनाम बर बरन जुग सावन भादव मास||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजी की भक्ति वर्षा-ऋतु है, उत्तम सेवकगण धान हैं और रामनाम के दो सुंदर अक्षर ('रा' और 'म') सावन-भादों के महीने हैं अर्थात जैसे वर्षा-ऋतु के श्रावण, भाद्रपद - इन दो महीनों में धान लहलहा उठता है, वैसे ही भक्तिपूर्वक श्रीरामचंद्रजी के नाम का जप करने से भक्तों को बहुत अधिक सुख मिलता है|श्रावण

राम नाम नर केसरी कनककसिपु कलिकाल|
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीराम-नाम नृसिंह भगवान के समान हैं| कलियुग हिरण्यकशिपु है और श्रीराम-नाम का जप करने वाले भक्तजन भक्त प्रहलाद के समान हैं, जिनकी वे रामनामरूपी नृसिंह भगवान देवताओं को दुःख देने वाले हिरण्यकशिपु को मारकर रक्षा करेंगे|

राम नाम कलि कामतरु राम भगति सुरधेनु|
सकल सुमंगल मूल जग गुरुपद पंकज रेनु||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुग में राम-नाम मनचाहा फल प्रदान करने वाले कल्पवृक्ष के समान है, राम-भक्ति मनचाही वस्तु प्रदान करने वाली कामधेनु है और श्रीसद्गुरु के चरणकमल की रज संसार में सब प्रकार के मंगलों की जड़ है|

राम नाम कलि कामतरु सकल सुमंगल कंद|
सुमिरत करतल सिद्धि सब पग पग परमानंद||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि भगवान श्रीराम का नाम कलियुग में कल्पवृक्ष के समान है और सब प्रकार के श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ मंगलों का परम सार है| राम-नाम के स्मरण से ही सब सिद्धियां वैसे ही प्राप्त हो जाती हैं, जैसे कोई चीज हथेली में ही रखी हो और कदम-कदम पर परम आनंद को प्राप्ति होती है|

जथा भूमि सब बिजमय नखत निवास अकास|
राम नाम सब धरममय जानत तुलसीदास||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि जिस प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी बिजमय है, सम्पूर्ण आकाश नक्षत्रों का निवास है, वैसे ही रामनाम सर्वधर्ममय है|

सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन|
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहूं किए मन मीन||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि जो समस्त भोग और मोक्ष की भी कामनाओं से रहित हैं और श्रीरामजी के भक्ति रस में डूबे हुए हैं, उन नारद, वसिष्ठ, वाल्मीकि, व्यास आदि महात्माओं ने भी रामनाम के सुंदर प्रेमरूपी अमृत-सरोवर में अपने मन को मछली बना रखा है अर्थात नामामृत के आनदं को वे क्षण-भर के लिए भी त्यागने में मछली की भांति व्याकुल हो जाते हैं|

ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि|
राम चरित सत कोटि महं लिय महेस जियं जानि||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि राम-नाम ब्रह्म और राम से भी बड़ा है, वह वर देने वाले देवताओं को भी वर प्रदान करने वाला है| महेश ने इस रहस्य को मन में समझकर ही रामचरित्र के सौ करोड़ श्लोकों में से चुनकर दो अक्षर के इस रामनाम को ही ग्रहण किया|

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ|
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुण गाथ||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्रीरामचंद्रजी ने तो शबरी, जटायु आदि अपने श्रेष्ठ सेवकों को ही सुगति दी परंतु रामनाम ने तो लाखों-करोडों दुष्टों का उद्धार कर दिया| प्रभु के 'राम-नाम' की यह गुण-गाथा वेदों में प्रसिद्ध है|

राम नाम पर नाम तें प्रीति प्रतीति भरोस|
सो तुलसी सुमिरत सकल सगुन सुमंगल कोस||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि जो रामनाम के अधीन है और रामनाम में ही जिसका प्रेम और विश्वास है, रामनाम का स्मरण करते ही वह सभी सद्गुणों और श्रेष्ठ मंगलों का खजाना बन जाता है|

लंक बिभीषन राज कपि पति मारुति खग मीच|
लही राम सों नाम रति चाहत तुलसी नीच||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामचंद्रजी से विभीषण ने लंका पाई, सुग्रीव ने राज्य प्राप्त किया, हनुमानजी ने सेवक की पदवी व प्रतिष्ठा पाई और पक्षी जटायु ने देवदुर्लभ उत्तम मृत्यु प्राप्त की, परंतु यह तुच्छ तुलसीदास तो उन प्रभु श्रीरामजी से केवल रामनाम में प्रेम ही चाहता है|

हरन अमंगल अघ अखिल करन सकल कल्याण|
रामनाम नित कहत हर गावत बेद पुरान||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि रामनाम सब अमंगलों और पापों को दूर करने वाला तथा सबका कल्याण करने वाला है| इसी से श्रीमहादेवजी सर्वदा श्रीरामनाम को रटते रहते हैं और वेद-पुराण भी इस नाम का ही गुण गाते हैं|

तुलसी प्रीति प्रतीति सों राम नाम जप जाग|
किएं होई बिधि दाहिनो देइ अभागेहि भाग||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रेम और विश्वास के साथ रामनाम जप रूपी यज्ञ करने से ईश्वर अनुकूल हो जाता है और अभागे मनुष्य को भी परम भाग्यवान बना देता है|

जल थल नभ गति अमित अति अग जग जीव अनेक|
तुलसी तो से दीन कहं राम नाम गति एक||


इस संसार में चर-अचर अनेक प्रकार के असंख्य जीव हैं| चरों में कुछ की जल में गति है, कुछ की पृथ्वी पर गति है और कुछ की आकाश में गति है, परंतु हे तुलसीदास ! तुझ जैसे दीन मनुष्य के लिए तो एकमात्र गति रामनाम है|

राम भरोसो राम बल राम नाम बिस्वास|
सुमिरत सुभ मंगल कुसल मांगत तुलसीदास||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि एकमात्र राम पर ही मेरा भरोसा रहे, राम ही का बल रहे और जिसके स्मरण मात्र से ही शुभ मंगल और कुशल की प्राप्ति होती है, उस रामनाम में ही विश्वास रहे|

राम नाम रति राम गति राम नाम बिस्वास|
सुमिरत सुभ मंगल कुसल दुहूं दिसि तुलसीदास||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसका रामनाम में प्रेम है, राम ही जिसकी एकमात्र गति है और रामनाम में ही जिसका विश्वास है, उसके लिए रामनाम का स्मरण करने से लोक-परलोक मंगल और कुशल है|

ध्यान

राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर|
ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्रीरामजी के बाईं ओर श्रीजानकीजी हैं और दाईं ओर श्रीलक्ष्मणजी हैं - यह ध्यान सम्पुर्ण रूप से कल्याणमय है| हे तुलसी ! तेरे लिए तो यह मनचाहा फल देने वाला कल्पवृक्ष ही है|

सीता लखन समेत प्रभु सोहत तुलसीदास|
हरषत सुर बरषत सुमन सगुन सुमंगल बास||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि भगवान श्रीरामजी श्रीसीताजी एवं श्रीलक्ष्मणजी के साथ सुशोभित हो रहे हैं, देवतागण हर्षित होकर फूलों की वर्षा कर रहे हैं| प्रभु का यह सगुण ध्यान सुमंगल-परम कल्याण का निवास स्थान है|

पंचबटी बट बिटप तर सीता लखन समेत|
सोहत तुलसीदास प्रभु सकल सुमंगल देत||


प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि पंचवटी में वट वृक्ष के नीचे भगवान श्रीरामचंद्रजी श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजी सहित सुशोभित हैं| ऐसा ध्यान सब सुमंगलों को देता है|












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