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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Wednesday, November 13, 2013

‘वासुदेवः सर्वम्’



‘वासुदेवः सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ भगवान् ही हैं

यदि मनुष्य इन चार बातोंको दृढता से स्वीकार करले तो उसका कल्याण हो जाएगा—
१- मेरा कुछ भी नहीं है ।
२- मेरेको कुछ भी नहीं चाहिए ।
३- मेरा किसीसे कोई सम्बन्ध नहीं है ।
४- केवल भगवान् ही मेरे हैं ।


वास्तवमें अनन्त ब्रह्माण्डोंमें लेश-मात्र जितनी वस्तु भी अपनी नहीं है । इसलिए ‘मेरा कुछ भी नहीं है’— ऐसा स्वीकार करनेसे जीवन में निर्दोषता आ जाती है । निर्दोषता आते ही मनुष्य धर्मात्मा हो जाता है ।

जीवमात्र परमात्माका अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ ( गीता १५/७ ) । भगवान् का अंश होनेके नाते केवल भगवान् ही हमारे हैं । भगवान् के सिवाय दूसरा कोई हमारा नहीं है । इस प्रकार भगवान् में अपनापन स्वीकार करते ही मनुष्य भक्त हो जाता है ।

‘वासुदेवः सर्वम’ का साधन कैसे सिद्ध हो ?

हाथ काम मुख राम है, हिरदै साची प्रीत ।
दरिया गृहस्थी साध की, याही उत्तम रीत ॥


जो भी प्राणी सामने आये, उसको साष्टांग प्रणाम करें । शरीरकी लज्जा आती हो तो उसको छोड़ दें और लोग हँसी उड़ाते हों उसकी परवाह मत करें; क्योंकि हमें उससे क्या मतलब ? हमें तो ‘वासुदेवः सर्वम्’ सिद्ध करना है । दृढ़ निश्चय हो जायगा तो ऐसा करनेमें कठिनता नहीं होगी । अगर कठिनता लगती हो तो मनसे ही दण्डवत् प्रणाम कर लें । ऐसा कोई प्राणी न छूटे, जिसको नमस्कार न किया हो । किसी भी वर्ण, आश्रम, जाति, धर्म, सम्प्रदायका मनुष्य हो, वह भगवान् ही है । इसमें चार बातें है1
१. इन प्राणियोंके भीतर भगवान् हैं, 
२. ये भगवान् के भीतर हैं,
३. ३. ये भगवान् के हैं और
४. ४. ये भगवान् ही हैं

ऐसा मानना सबसे सुगम है । अतः ऐसा मान लें कि ये भगवान् के हैं, भगवान् को प्यारे है, इसलिए हम इनको प्रणाम करते हैं । ऐसा करनेका परिणाम क्या होगा, यह भगवान् बताते हैं—
नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात् ।
स्पर्धाऽसूयातिरस्काराः साहङ्कारा वियन्ति हि ॥

(श्रीमद्भागवत ११/२९/१५ )
‘जब भक्तका सम्पूर्ण स्त्री-पुरुषोंमें निरन्तर मेरा ही भाव हो जाता है अर्थात् उनमें मुझे ही देखता है, तब शीध्र ही उसके चित्तसे ईर्ष्या, दोषदृष्टि, तिरस्कार आदि दोष अहंकार-सहित सर्वथा दूर हो जाते हैं ।’
इसलिए मनुष्य मात्र में भगवान् का भाव रखें । कहीं भाव न हो सके तो मनसे माफ़ी माँग लें । किसीको कहनेकी, जनानेकी जरुरत नहीं । शरीर-मन-वाणीसे संसारकी सेवा करनी है और संसार भगवान् का विराट् रूप है । अतः भगवान् के ही शरीर-मन-वाणीसे भगवान् की ही सेवा करनी है । फिर ‘वासुदेवः सर्वम्’ सिद्ध हो जायगा; क्योंकि यह कोई नया निर्माण नहीं है, प्रत्युत पहलेसे ही है । इसके लिए विद्याध्ययन, धनसम्पत्ति, बल, अनुष्ठान आदिकी जरुरत नहीं है । इसको हरेक भाई-बहन कर सकता है ।
विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रिडां च दैहिकीम् ।
प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्वचाण्डालगोखरम् ॥

( श्रीमद्भागवत ११/२९/१६ )

‘हँसी उड़ानेवाले अपने लोगोंको और अपने शरीरकी दृष्टिको भी लेकर जो लज्जा आती है, उसको छोडकर अर्थात् उसकी परवाह न करके कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर लंबा गिरकर भगवद् बुद्धिसे साष्टांग प्रणाम करें ।
‘वासुदेवः सर्वम्’


दामोदर मास

दामोदर मास को कार्तिक मास भी कहा जाता है।

भगवान श्री कृष्ण को वनस्पतियों में तुलसी, पुण्यक्षेत्रों में द्वारिकापुरी, तिथियों में एकादशी और महीनों में कार्तिक विशेष प्रिय है- कृष्णप्रियो हि कार्तिक:, कार्तिक: कृष्णवल्लभ:। इसलिए कार्तिक मास को अत्यंत पवित्र और पुण्यदायक माना गया है।

ग्रंथों के अनुसार

भविष्य पुराण

भविष्य पुराण की कथा के अनुसार, एक बार कार्तिक महीने में श्रीकृष्ण को राधा से कुंज में मिलने के लिए आने में विलंब हो गया। कहते हैं कि इससे राधा क्रोधित हो गईं। उन्होंने श्रीकृष्ण के पेट को लताओं की रस्सी बनाकर उससे बांध दियां वास्तव में माता यशोदा ने किसी पर्व के कारण कन्हैया को घर से बाहर निकलने नहीं दिया था। जब राधा को वस्तुस्थिति का बोध हुआ, तो वे लज्जित हो गईं। उन्होंने तत्काल क्षमा याचना की और दामोदर श्रीकृष्ण को बंधनमुक्त कर दिया। इसलिए कार्तिक माह 'श्रीराधा-दामोदर मास' भी कहलाता है।

पद्म पुराण

पद्म पुराण में उल्लेख है कि पूर्व जन्म में आजीवन एकादशी और कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करने से ही सत्यभामा को कृष्ण की अर्द्धांगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। व्रत और तप की दृष्टि से कार्तिक मास को परम कल्याणकारी, श्रेष्ठ और दुर्लभ कहा गया है-

स्कंदपुराण

स्कंद पुराण के अनुसार, कार्तिक के माहात्म्य के बारे में नारायण ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु को अवगत कराया था। पद्मपुराण के अनुसार, रात्रि में भगवान विष्णु के समीप जागरण, प्रात: काल स्नान करने, तुलसी की सेवा, उद्यापन और दीपदान ये सभी कार्तिक मास के पांच नियम हैं। इस मास के दौरान विधिपूर्वक स्नान-पूजन, भगवद्कथा श्रवण और संकीर्तन किया जाता है। इस समय वारुण स्नान, यानी जलाशय में स्नान का विशेष महत्व है। तीर्थ-स्नान का भी असीम महत्व है। भक्तगण ब्रज में इस माह के दौरान श्रीराधाकुंड में स्नान और परिक्रमा करते हैं। 'नमो रमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये' मंत्रोच्चार कर तुलसी की पूजा की जाती है। माना जाता है कि दामोदर मास में राधा के विधिपूर्वक पूजन से भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं, क्योंकि राधा को प्रसन्न करने के सभी उपक्रम भगवान दामोदर को अत्यंत प्रिय हैं।

श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय

श्री - निधि | कृष्ण - आकर्षण तत्व | गोविन्द - इन्द्रियों को वशीभुत करना गो-इन्द्रि, विन्द बन्द करना, वशीभूत | हरे – दुःखों का हरण करने वाले | मुरारे – समस्त बुराईयाँ- मुर (दैत्य) | हे नाथ – मैं सेवक आप स्वामी | नारायण – मैं जीव आप ईश्‍वर | वासु – प्राण | देवाय – रक्षक

“हे आकर्षक तत्व मेरे प्रभो, इन्द्रियों को वशीभूत करो, दुःखों का हरण करो, समस्त बुराईयों का बध करो, मैं सेवक हूँ आप स्वामी, मैं जीव हूं आप ब्रह्म, प्रभो ! मेरे प्राणों के आप रक्षक हैं ।”


||श्री गोपाल दोमोदर स्त्रोतम् ||

करार विन्दे न पदार्विन्दं ,मुखार्विन्दे विनिवेशयन्तम

वटस्य पत्रस्य पुटेश्यानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि || (१)

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (2)

विक्रेतु-कामा किल गोप-कन्या, मुरारि-पादार्पित-चित्त-वृत्तिः

दध्यादिकं मोहवशात् अवोचत्, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (३)

गृहे गृहे गोप-वधू-कदम्बाः, सर्वे मिलित्वा समवाय-योगे

पुण्यानि नामानि पठन्ति नित्यं, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (४)

सुखं शयाना निलये निजेऽपि, नामानि विष्णोः प्रवदन्ति मर्त्याः

ते निश्चितं तन्मयतां व्रजन्ति, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (5)

जिह्वे सदैव भज सुन्दराणि, नामानि कृष्णस्य मनोहराणि

समस्त-भक्तार्ति-विनाशनानि, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (6)

सुखावसाने तु इदमेव सारं, दुःखावसाने तु इदमेव गेयम्

देहावसाने तु इदमेव जाप्यं, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (7)

जिह्वे रसज्ञे मधुर-प्रियात्वं, सत्यं हितं त्वां परमं वदामि

आवर्णयेता मधुराक्षराणि, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (8)

त्वामेव याचे मम देहि जिह्वे, समागते दण्ड-धरे कृतान्ते

वक्तव्यमेवं मधुरं सुभक्त्या, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (9)

श्री कृष्ण राधावर गोकुलेश, गोपाल गोवर्धन-नाथ विष्णो

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव, गोविन्द दामोदर माधवेति ।। (10)

|| श्री गोविन्द-दामोदर-स्तोत्रं संपूर्णम् ।।

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