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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Monday, September 16, 2013

जय श्री गिरीराज महाराज जी

जय श्री राधा जी

जय श्री गिरीराज महाराज जी

हिंदुओं का पसिद्ध तीर्थस्‍थल गोवर्धन मथुरा से 26 कि.मी. पश्चिम में डिग हाईवे पर स्थित है। कहा जाता है कि यहां के कण-कण में भगवान श्रीकृष्ण का वास है। यहां एक प्रसिद्ध पर्वत है जिसे यह गिरिराज कहा जाता है। यह पर्वत छोटे-छोटे बालू पत्थरों से बना हुआ है। इस पर्वत की लंबाई 8 कि.मी. है।

गोवर्धन में एक कुंड है जिसे मानसी गंगा कहा जाता है। कहा जाता है कि इसका निर्माण भगवान श्रीकृष्‍ण ने किया था। लोगों का मानना है कि इस कुंड में स्‍नान करना गंगा नदी में स्‍नान करने के बराबर है। मानसी गंगा के चारो ओर के घाटों का निर्माण राजा भगवान दास ने 1637 में कराया था। इसकी साज-सज्‍जा भगवान दास के पुत्र राजा मानसिंह द्वारा कराई गई थी। उन्‍होंने ही मानसी गंगा के पवित्र जल तक पहुंचने के लिए सीढियों का निमार्ण कराया था। मानसी गंगा के पास ही लाल बलुए पत्‍थर से निर्मित हरिदेव मंदिर तथा कुसुम सरोवर है। इन दोनों संरचनाओं में भरतपुर के कारिगरों द्वारा खूबसूरत नक्‍काशी की गई है।

गोवर्धन के बारे में
भगवान कृष्ण के पिता नंद महाराज ने एक बार अपने भाई उपनंद से पूछा कि गोवर्धन पर्वत वृंदावन की पवित्र धरती पर कैसे आया? तब उपनंद ने कहा कि पांडवो के पिता पांडु ने भी यही प्रश्‍न अपने दादा भीष्‍म पितामह से पूछा। इस प्रश्‍न के उत्तर में भीष्‍म पितामह ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है।

एक दिन गोलोक वृंदावन में भगवान श्रीकृष्ण ने राधारानी से कहा की जब हम ब्रज भूमि पर जन्म लेंगे तब हम वहां पर अनेक लीलाये रचायेंगें। तब हमारे द्वारा रचाई गई लीला धरतीवासियो के स्मृतियो में हमेशा रहेगी। पर समय परिवर्तन के साथ यह सब चीजे ऐसी नही रह पायेंगी और नष्ट हो जायेंगी। परन्तु गोवर्धन पर्वत और यमुना नदी धरती के अन्त तक रहेगीं। यह सब कथा सुनकर राधारानी प्रसन्न हो गई।

पौराणिक कथाओं के अनुसार
गोवर्धन पर्वत के संबंध कई कथाएं प्रचलित है। एक कथा के अनुसार प्राचीन काल में पर्वत राज ओरोंकल की पत्‍नी सलमनी द्वीप ने गोर्वधन नाम के पुत्र को जन्म दिया। गोर्वधन के जन्म के समय आसमान से सभी देवी-देवताओं ने फूलों की वर्षा की और अपसराओ ने नृत्य किया। सभी ने मंगल गान और बधाई गीत गाये। सभी ने उसे गोलोक वृंदावन के मस्तिष्‍क पर अवतरित हुआ अनमोल रत्‍न कहा।

कुछ समय पश्‍चात सतयुग के प्रारंभ में परमज्ञानी पुलस्थय मुनि ने सलमनी द्वीप का भ्रमण किया। उन्होंने वहां पर गोवर्धन पर्वत को देखा जो कि विसर्पी पौधे, फूल, नदियों, गुफाओं और चू-चू करते हुए पक्षियों के कारण अति सुंदर लग रहा था। जिसे देख उनके मन मे कपट आ गया। वह ओरोंकल से मिलने के लिए आए, ओरोंकल ने उनका सम्मान किया और अपने आप को उनकी सेवा मे सर्मपित कर दिया।

पुलस्थय मुनि ने ओरोंकल से कहा कि वह कली से आये हैं जो कि एक पवित्र तीर्थ स्थल है। यह गंगा के किनारे पर स्थित है। परन्तु वहां पर कोइ भी सुंदर पर्वत नही है। फिर उन्होंने कहा राजन तुम गोर्वधन को मुझे दे दो। यह सुनने के बाद ओरोंकल ने मुनि से प्रार्थना की कि मान्यवर यह ना मांगे। इसके बदले कुछ भी मांग लें मैं दे दूंगा। मुनि ने कहा राजन तुम हमारी आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो। मुनि की यह बात सुन कर राजा रोने लगे। राजा गोवर्धन से अपनी जुदाई को सहन नहीं कर पा रहे थे। यह सब बातें गोवर्धन सुन रहे थे। उन्होंने कहा महर्षि आप मुझे कैसे कली तक लेकर जाएंगें। मुनि ने कहा मै तुम्हे अपने दायें हाथ पर रख कर लेकर जाऊंगा। गोवर्धन ने कहा मुनिराज मैं आपके साथ चलूंगा परन्तु एक शर्त है। गोवर्धन ने कहा कि आप मुझे ले जाते समय जहां भी रख देंगे मैं वहीं पर स्थिर हो जाऊंगा। उससे आगे नहीं जाऊंगा। मुनि गोवर्धन की शर्त मान गये।

मुनि ने गोवर्धन को अपने दाये हाथ पर रख लिया और कली के लिये चल दिये। जब वह ब्रज की ओर से गुजरे, गोर्वधन को अनुभव हुआ कि जरूर यह कोई पवित्र स्थल है। उनके मन मे विचार आया कि वह यहीं रूक जाये। परन्तु वह अपने वचन के कारण विवश थे। तभी पुलस्‍थय मुनि के अन्दर एक प्रकृतिक अनुभव आया और वह ध्यान मुद्रा मे जाने लगे। इसके लिए उन्हें गोवर्धन को अपने हाथ से उतारना पड़ा। फिर क्या था गोवर्धन वहीं पर स्थिर हो गये। जब मुनि ने अपनी साधना समाप्त की और वह गोवर्धन को अपने साथ ले जाने लगे तब गोवर्धन ने अपनी शर्त याद दिलाया और कहा मुनि राज आप अपने वचनानुसार मुझे और आगे नही ले जा सकते। यह वचन सुन कर मुनि क्रोधित हो गये और गोवर्धन को श्राप दे दिया। और कहा तुम प्रति दिन एक तिल नीचे घरती में धसते चले जाओंगे। इसी श्राप के कारण गोवर्धन एक तिल कर नीचे धसते चले जा रहे हैं। जब सतयुग में गोवर्धन धरती पर आये थे, वो आठ योजन लम्बे, पांच योजन चौड़े और दो योजन उंचे थे। उनको मिले श्राप के कारण कहा जाता है कलयुग के 10 हजार वर्ष पूरे हो जाने पर गोवर्धन पूरी तरह से धरती मे समाहित हो जायेंगे।

एक अन्‍य पौराणिक कथा भी गोवर्धन के बारे में प्रचलित है। इसके अनुसार गोवर्धन को त्रेता युग का माना जाता है। रावण से सीता को छुडा़ने के लिए भगवान राम को लंका पर चढाई करना जरुरी था। इसके लिए विशाल समुद्र को पार करने के लिए उन्‍हें सेतु की आवश्यकता पड़ी। सेतु बनाने के उन्‍होंने अपनी वानर सेना को पत्थरो की खोज में भेजा। हनुमान पत्थर लेने के लिए हिमालय पर गये और वहां से गोवर्धन पर्वत को अपने साथ लाने लगे तभी उन्हें सूचना मिली की सेतु निर्माण कार्य पूरा हो चूका है। उस समय हनुमान ब्रज भूमि से गुजर रहे थे, उन्होंने गोवर्धन को वहीं पर छोड़ दिया। तब गोवर्धन पर्वत ने हनुमान से कहा कि भगवन मुझसे क्या गलती हो गई जो आप मुझे नहीं ले जा रहे हैं। यह कह कर गोवर्धन रोने लगे। तभी हनुमान ने भगवान राम का ध्यान किया और यह सब कथा विस्तार से कही। फिर उत्तर में भगवान राम ने कहा गोवर्धन से कहो कि जब हम द्वापर युग में कृष्ण अवतार लेंगें तो सात दिन और सात रातों तक उसे अपनी उंगली पर धारण करेंगे। तभी से गोवर्धन की पूजा मेरे रूप में होने लगेगी। यह वचन सुन कर गोवर्धन खुश हो गये और प्रभु की महिमा का गुणगान करने लगे।

गोवर्धन परिक्रमा
गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा 23 कि.मी. की है जिसे पूर्ण करने मे 5 से 6 घंटे का समय लगता है। गोवर्धन की परिक्रमा पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या काफी अधिक है। पूरे भारत वर्ष से श्रद्धालु यहां पर आकर भगवान कृष्ण की कृपा प्राप्त करते है। विशेष पर्वों पर यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या मे भारी वृद्धि हो जाती है। यहा के प्रमुख पर्व गोवर्धन और गुरू पूर्णिमा हैं। इन दोनों पर्वों पर तो संख्या 5 लाख को भी पार कर जाती है। वैसे प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक यहां पर मेले का आयोजन किया जाता है। परिक्रमा करते हुए यात्री राधे-राधे बोलते है जिसके कारण सारा वातावरण राधामय हो जाता है। वैसे परिक्रमा करने का कोई निश्चित समय नहीं है। परिक्रमा कभी भी की जा सकती है। साधारण रूप से परिक्रमा करने में 5 से 6 घंटे का समय लगता है। परन्तु दण्डवत परिक्रमा करने वाले को एक हफ्ता लग जाता है। दण्डवत परिक्रमा करने वाले लेट कर परिक्रमा करते हैं और जहां पर विश्राम लेना होता है वहां पर चिन्ह लगा देते है। विश्राम करने के पश्‍चात फिर चिन्ह लगे स्थान से ही पुन परिक्रमा प्रारंभ कर देते है। कुछ साधु 108 पत्थर के साथ परिक्रमा करते हैं। वह एक-एक कर अपने पत्थरों को आगे रखते रहते हैं और धीर-धीर आगे बढते रहते हैं। वे अपनी परिक्रमा को महीनो में पूरा कर पाते है। जिस स्थान पर रूक जाते है वहीं से परिक्रमा प्रारंभ करते है। साधु परिक्रमा मार्ग मे ही विश्राम करते हैं। वह किसी अन्य स्थान पर जाकर विश्राम नही कर सकते है। यह परिक्रमा का नियम है।

परिक्रमा मार्ग के प्रमुख दर्शनीय स्थल
परिक्रमा मार्ग मे अनेक दर्शनीय स्थल हैं। जिनमे से कुछ अति महत्वपूर्ण हैं। परिक्रमा मार्ग मे मंदिरो की संख्या काफी अधिक है जो बहुत ही भव्य और सुन्दर है। परिक्रमा मार्ग मे अनेक कुण्ड पड़ते है जिसमें से प्रमुख हैं राधा कुण्ड और कृष्ण कुण्ड। राधा कुण्ड को राधा रानी ने अपने कंगन से और कृष्ण कुण्ड को कृष्ण भगवान ने अपनी मुरली से बनाया था। कहा जाता है इन कुण्डो का निमार्ण कृष्ण भगवान ने गौ हत्या के पाप से मक्ति पाने के लिए किया था। एक समय भगवान कृष्ण अपनी गायों को चराने के लिए जा रहे थे उसी समय एक राक्षस उनकी गायों मे गाय का रूप बना कर आ गया और उत्पात मचाने लगा। भगवान कृष्ण ने उसे पहचान लिया और उसका वध कर उसकी करनी का दण्ड दिया। वध करने के पश्‍चात भगवान कृष्ण राधा से मिलने गये। राधा ने कहा कि मैं आपसे नहीं मिलूंगी आपको गौ हत्या का आप लग गया है। पहले इस पाप से मुक्ति पाओ फिर हम से मिलो। इसी के लिए भगवान कृष्ण ने इन कुण्डों का निर्माण किया। परिक्रमा मार्ग मे ही कुसुम सरोवर है जो कि बहुत ही सुन्दर है। परिक्रमा मार्ग मे आगे बढने पर मानसी गंगा आती है जिसे भगवान कृष्ण ने बनाया था। इसमें स्नान का महत्‍व गंगा मे स्नान के बराबर है। परिक्रमा की शुरूआत दान घाटी मंदिर से की जाती है और इसकी समाप्ति भी इसी मंदिर पर होती है। इसी स्थान पर राधा जी ने कृष्ण भगवान को दान दिया था। इसी कारण यह स्थान दान घाटी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यही पर गोवर्धन की शीला का दूधाभिषेक किया जाता।

राधा कुण्ड मे प्रमुख स्नान
राधा कुण्ड में अहोई अष्टमी को विशेष स्नान होता है। यह स्नान अश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को किया जाता है। इसमें बड़ी संख्‍या में लोग आते हैं। मान्यता है कि यदि किसी स्‍त्री के संतात न होती हो तो यदि वह यहां पर आकर स्नान कर ले तो उसे भगवान कृष्ण की कृपा से संतान प्राप्ति हो जाती है। इस दिन यहां पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।

परिक्रमा करते समय बरते जाने वाली सावधानियां
1. परिक्रमा करते वक्त यात्रियों को गाय, साधुओं, पेड़ो, विसर्पी पौधो आदि का सम्मान करना चाहिए।
2. परिक्रमा मार्ग में किसी भी व्यक्ति पर क्रोध नही करना चाहिए और न ही किसी को अपशब्द बोलना चाहिए।
3. परिक्रमा करते वक्त जूते नहीं पहनने चाहिए तथा कपड़े साफ होने चाहिए।
4. परिक्रमा शुरू करने से पूर्व अपने दांत ठीक प्रकार से साफ कर लेने चाहिए।
5. ध्यान रहे परिक्रमा करते वक्त किसी भी जीव-जन्तु की हत्या न हो जाए। इसलिए ध्यान से चलना चाहिए।
6. परिक्रमा करते वक्त यदि किसी स्थान पर विश्राम के लिए रूकते है तो उसी स्थान से परिक्रमा पुन: प्रारंभ करनी चाहिए जिस स्थान पर रूके थे।
7. परिक्रमा अधूरी नहीं छोड़नी चाहिए।
8. महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान परिक्रमा नहीं करनी चाहिए।
9. यदि कोई व्यक्ति तनाव ग्रस्त है तो उसे उसका त्याग कर परिक्रमा करनी चाहिए।
10. परिक्रमा करते समय राधा-कृष्ण का नाम उच्चारण करना चाहिए।

गोवर्धन का महत्व
गोवर्धन का वर्णन हमारे वेदो में भी विस्तार पूर्वक पाया जाता है। वेदो के अनुसार गोवर्धन एक बहुत ही पवित्र पर्वत है। इसे कोई साधारण पर्वत नही समझना चाहिए। यह पूरे विश्व का सर्वाधिक पूजनीय पर्वत है। गोवर्धन विश्व ही नहीं पूरे ब्रह्माण्‍ड के लिए पूजनीय है। इसे धरती के सबसे अनमोल रत्‍न और इसके ताज की उपाधि दी गई है। वेदो के अनुसार गोवर्धन दो तरह से जाना जाता है। एक तो भगवान कृष्ण के रूप मे और दूसरा पर्वतों के राजा गिरिराज के रुप में।

कृष्ण भगवान द्वारा गोवर्धन की पूजा
कृष्ण ने अवतार काल में गोवर्धन की पूजा कराई थी। इससे पूर्व ब्रजवासी इन्द्र की पूजा किया करते थे। उनका मानना था कि यदि इन्द्र उन पर प्रसन्न रहेंगे तो ब्रज में खुशहाली बनी रहेगी और उनके खेत हरे-भरे रहेंगे। परन्तु कृष्ण भगवान ने उन्हे समझाया और कहा वास्तव में ब्रज की खुशहाली का कारण गोवर्धन है। यह उनकी गायों के लिए एक वरदान है। जहां से वह अपना भरण-पोषण करती है। वहां से वह हरी-भरी घास खाती है। जिसके कारण वह अधिक दूध देती है। उसी दूध से मख्खन, घी, मेवा और मिष्ठान तैयार होते हैं। यदि गोवर्धन न होता तो हमारी गाय कहां चरने जाती? इस लिए हमे गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। ब्रजवासियों ने कृष्ण भगवान के कहने पर गोवर्धन की पूजा प्रारंभ कर दी। इस प्रकार ब्रज मे गोवर्धन पूजा की प्रथा प्रारंभ हो गयी। इस कारण इन्द्र को क्रोध आ गया और उन्होंने पूरे ब्रज में भारी वर्षा प्रारंभ कर दी। इस कारण पूरे ब्रज में हा-हाकार मच गया, बाढ आ गई। ब्रजवासियो की रक्षा के लिए भगवान कृष्ण सभी को गोवर्धन की शरण में लेकर आ गये। उन्होंने गोवर्धन से प्रार्थना की और कहा हमें शरण दें। फिर भगवान कृष्ण ने गोवर्धन को अपनी अनामिका पर उठा लिया और सभी लोगो को उसके नीचे आने के लिए कहा। कृष्ण द्वारा सभी लोगो की रक्षा की गई। इन्द्र ने सात दिन और रात तक वर्षा की फिर भी वह ब्रजवासियो का कुछ भी बाल बंका नही कर पाए। इस प्रकार उनका घमण्ड चूर हो गया उन्‍हें अपनी गलती का अहसास हुआ।

गोवर्धन मे मनाए जाने वाले त्यौहार
वैसे तो गोवर्धन मे सभी त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है। पर गोवर्धन और जन्माष्टमी अधिक धूमधाम से मनाये जाते है। गोवर्धन का त्यौहार कार्तिक मास मे शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि को मनाया जाता है। इसी दिन भगवान कृष्ण ने गोवर्धन को धारण किया था। जिस स्थान पर भगवान ने गोवर्धन को अपनी उंगली पर धारण किया था वह स्थान जतीपुरा के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्‍थान गोर्वधन की परिक्रमा मार्ग मे ही आता है।

जय गिरीराज महाराज

गोवर्धन पर्वत उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के अंतर्गत आता है । गोवर्धन व इसके आस पास के क्षेत्र को ब्रज भूमि भी कहा जाता है ।

यह भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली है| यहीं पर भगवान श्री कृष्ण ने द्वापर युग में ब्रजवासियों को इन्द्र के प्रकोप से बचाने के लिये गोवर्धन पर्वत अपनी तर्जनी अंगुली पर उठाया था। गोवर्धन पर्वत को भक्क्तजन गिरिराज जी भी कहते हैं।

आज भी यहाँ दूर दूर से भक्त जन गिरिराज जी की परिक्रमा करने आते हैं । यह ७ कोस की परिक्रमा लगभग २१ किलोमीटर की होती है । मार्ग में पडने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लोटा, दानघाटी इत्यादि हैं ।

गोवर्धन

राधाकुण्ड से तीन मील पर गोवर्द्धन पर्वत है। पहले यह गिरिराज 7 कोस(२१ कि·मी) में फैले हुए थे, पर अब आप धरती में समा गए हैं। यहीं कुसुम सरोवर है, जो बहुत सुंदर बना हुआ है। यहाँ वज्रनाभ के पधराए हरिदेवजी थे पर औरंगजेबी काल में वह यहाँ से चले गए। पीछे से उनके स्थान पर दूसरी मूर्ति प्रतिष्ठित की गई।

यह मंदिर बहुत सुंदर है। यहाँ श्री वज्रनाभ के ही पधराए हुए एकचक्रेश्वर महादेव का मंदिर है। गिरिराज के ऊपर और आसपास गोवर्द्धनगाम बसा है तथा एक मनसादेवी का मंदिर है। मानसीगंगा पर गिरिराज का मुखारविन्द है, जहाँ उनका पूजन होता है तथा आषाढ़ी पूर्णिमा तथा कार्तिक की अमावस्या को मेला लगता है।

गोवर्द्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान्‌ का चरणचिह्न है। मानसी गंगा पर जिसे भगवान्‌ ने अपने मन से उत्पन्न किया था, दीवाली के दिन जो दीपमालिका होती है, उसमें मनों घी खर्च किया जाता है, शोभा दर्शनीय होती है। यहाँ लोग दण्डौती परिक्रमा करते हैं। दण्डौती परिक्रमा इस प्रकार की जाती है कि आगे हाथ फैलाकर जमीन पर लेट जाते हैं और जहाँ तक हाथ फैलते हैं, वहाँ तक लकीर खींचकर फिर उसके आगे लेटते हैं।

इसी प्रकार लेटते-लेटते या साष्टांग दण्डवत्‌ करते-करते परिक्रमा करते हैं जो एक सप्ताह से लेकर दो सप्ताह में पूरी हो पाती है। यहाँ गोरोचन, धर्मरोचन, पापमोचन और ऋणमोचन- ये चार कुण्ड हैं तथा भरतपुर नरेश की बनवाई हुई छतिरयां तथा अन्य सुंदर इमारतें हैं।

मथुरा से दीघ को जाने वाली सड़क गोवर्द्धन पार करके जहाँ पर निकलती है, वह स्थान दानघाटी कहलाता है। यहाँ भगवान्‌ दान लिया करते थे। यहाँ दानरायजी का मंदिर है। इसी गोवर्द्धन के पास 20 कोस के बीच में सारस्वतकल्प में वृंदावन था तथा इसी के आसपास यमुना बहती थी

कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण की सबसे प्रिय गोपी राधा बरसाना की रहने वाली थीं। श्री राधा की प्राधानता का मूल स्रोत श्री राधावल्ल्भ मन्दिर हे |

श्री राधा भजत भजी,भली भली सब होये|

किशोरी श्री राधा जू की कृपा कटाक्ष के बिना मधुर रस का आस्वादन नहीं हो सकता। श्री कृष्ण भी इनके प्रेम में मतवाले तथा इनकी चरण रज के लिये लालायित रहते हैं। वैसे तो श्री राधा तथा श्री कृष्ण एक ही रस समुद्र के दो महान रत्न हैं, आनन्द आस्वादन हेतु ये दो देह धारण कर लीलायें कर रहे हैं। जिस प्रकार श्री राधा जी के बिना कृष्ण जी की बाल लीलाओं का वर्णन अधूरा है उसी प्रकार बरसाना के बिना ब्रज का वर्णन नहीं किया जा सकता। बरसाना का प्राचीन नाम वृषभानुपुर है। ब्रज में निवास करने के लिये स्वयं ब्रह्मा जी भी आतुर रहते थे एवं श्री कृष्ण लीलाओं का आनन्द लेना चाहते थे। अतः उन्होंने सतयुग के अंत में विष्णु जी से प्रार्थना की कि आप जब ब्रज मण्डल में अपनी स्वरूपा श्री राधा जी एवं अन्य गोपियों के साथ दिव्य रास-लीलायें करें तो मुझे भी उन लीलाओं का साक्षी बनायें एवं अपनी वर्षा ऋतु की लीलाओं को मेरे शरीर पर संपन्न कर मुझे कृतार्थ करें। श्री ब्रह्मा जी की इस प्रार्थना को सुनकर भगवान विष्णु जी ने कहा- "हे ब्रह्मा! आप ब्रज में जाकर वृषभानुपुर में पर्वत रूप धारण कीजिये। पर्वत होने से वह स्थान वर्षा ऋतु में जलादि से सुरक्षित रहेगा, उस पर्वतरूप तुम्हारे शरीर पर मैं ब्रज गोपिकाओं के साथ अनेक लीलायें करुंगा और तुम उन्हें प्रत्यक्ष देख सकोगे। अतएव बरसाना में ब्रह्मा जी पर्वत रूप में विराजमान हैं। पद्मपुराण के अनुसार यहाँ विष्णु और ब्रह्मा नाम के दो पर्वत आमने सामने विद्यमान हैं। दाहिनी ओर ब्रह्म पर्वत और बायीं विष्णु पर्वत विद्यमान है। श्री नन्दबाबा एवं श्री वृषभानु जी का आपस में घनिष्ट प्रेम था। कंस के द्वारा भेजे गये असुरों के उपद्रवों के कारण जब श्री नन्दराय जी अपने परिवार, समस्त गोपों एवं गौधन के साथ गोकुल-महावन छोड़कर नन्दगाँव में निवास करने लगे, तो श्री वृषभानु जी भी अपने परिवार सहित उनके पीछे-पीछे रावल को त्याग कर चले आये और नन्दगाँव के पास बरसाना में आकर निवास करने लगे। यहाँ के पर्वतों पर श्री राधा-कृष्ण जी ने अनेक लीलाएँ की हैं। अपनी मधुर तोतली बोली से श्रीवृषभानु जी एवं कीरति जी को सुख प्रदान करती हुईं श्री राधा जी बरसाने की प्रत्येक स्थली को अपने चरण-स्पर्श से धन्य करती हैं। बरसाना गाँव लट्ठमार होली के लिये प्रसिद्ध है

गोवर्धन परिक्रमा करने से समस्त दुखों का नाश होता है एवं और मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं ओर यदि गुरु पूर्णिमा पर परिक्रमा कि जाए तो इसका फल कई गुना बढ़ जाता है.

जय श्री राधा जी

जय श्री गिरीराज महाराज जी


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