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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Friday, July 19, 2013

गुरु पूर्णिमा आषाढ़, शुक्ल पक्ष, 2070 विक्रम सम्वत, सोमवार, 22 जुलाई 2013



शिव हमारे गुरु हम शिव के शिष्य
तुम त्रिभुवन गुरु वेद बखाना

समस्त चिंताओं से मुक्ति एवं समग्र मनोकामनाओ की पूर्ति के लिए देवाधिदेव महादेव का कृपा पात्र बन जाना अति सरल एवं फलदायी है| यदि शिव को हम गुरु मान ले तो साधना आसान हो चलती है| इष्ट कोई भी हो गुरु यदि शिव हो तो इष्ट की प्राप्ति हो ही जाती है| गुरुदेव बृहस्पति , दैत्यगुरु शुक्राचार्य सहित तमाम देवी देवताओ ने प्रथम गुरु, आदिगुरु, जगतगुरु इत्यादि नामो से विभूषित शिव को गुरु बनाया और पूज्यनीय बने| शिव तब भी भाव से गुरु बने और अब भी भाव से प्राव्य है| त्रिकालदर्शी शिव जैसगुरु होने पर जीवन को जानने, पहचाहने, और सिखने की अपार संभावनाए स्वागत को तैयार रहती है| दैत्यगुरु शुक्राचार्य सहित तमाम देवी देवताओ ने प्रथम गुरु, आदिगुरु, जगतगुरु इत्यादि नामो से विभूषित शिव को गुरु बनाया और पूज्यनीय बने| शिव तब भी भाव से गुरु बने और अब भी भाव से प्राव्य है| त्रिकालदर्शी शिव जैसगुरु होने पर जीवन को जानने, पहचाहने, और सिखने की अपार संभावनाए स्वागत को तैयार रहती है| ' वन्दे विद्यातीर्थ महेश्वरम ' .... विद्या के तीर्थ महेश्वर को प्रणाम है|

यहाँ विचार उठता है कि संसार में इतने सारे प्रत्यछ गुरुओ कि उपस्थिति के बावजूद अदृश्य शिव को गुरु क्यों बनाया जाए | गुरु ऐसा हो जिसपर कभी कोई संचय न पनपे | आज के परिवेश में यह कठिन लगाने लगा है, सो शिव जैसा निर्मल व् सछम गुरु बनाना ही सम्पूर्ण सजगता है | इससे बन्धनों से मुक्त साधना और सिद्धि कि राह मिलती है| जो सांसारिक और अध्यात्मिक दोनों तरह कि उपलब्धिया दे सकने में सछम है |

बनाना बहुत आसान है| आप मन में उन्हें गुरु माने और शिष्यता के भाव उन्हें समर्पित करे | इसके लिए आप इन पंक्तियों को दोहराह सकते है ' हे महेश्वर आप मेरे गुरु है मैं आपका शिष्य हु, मुझ शिष्य पर दया करे '| शिष्यता के भाव को बार - बार दोहराने से आपका मन मस्तिक और आभा मंडल इनके अनुरूप हो जायेगा | फिर तो परम सत्ता शिव कि ओर से आपकी शिष्यता स्वीकार कर लिए जाने का जवाब आ ही जायेगा | जिसका आपको स्पष्ट अनुभव होगा | उसके बाद आप समग्र अंतरिछ सामराज्य को घोषणा कर के सूचित कर दे कि "मैं शिव का शिष्य हु शिव मेरे गुरु है " यह घोषणा आप किसी शिव शिष्य से भी करा सकते है | शिव के शिष्य होने पर आप खुद को धन्य महसूस करे | इससे आत्मविश्वाश स्थापित होगा और शिव के प्रति समर्पण बढ़ेगा |

वैसे तो शिव को गुरु बनाने के लिए किसी व्यक्ति से ज्ञानार्जन कि अनिवार्यता नहीं होती है फिर भी प्रारम्भिक जिज्ञाशाओ के चलते किसी शिव शिष्य से शिव चर्चा कर लेना उचित होता है | शिव शिष्यता को सिध्धियो तक ले जाने के लिए प्रतिदिन कम से कम ५ मिनट शिष्यता भाव शिव को अर्पित करे और उसके पश्चात् गुरु शिव को नम: शिवाय का जाप करते हुए ५ मिनट तक नमन करके आर्शीवाद प्राप्त करे | सुविधानुसार ऐसा दिन में कई बार किया जा सकता है | इसी दौरान आप शिव गुरु के समछ अपने प्रश्न रख सकते है, आपतक उनका जवाब अवश्य पहुचेगा | लोग से शिव चर्चा करके अपने अनुभव बताना न भूले | शिव गुरु की यह साधना आप कभी भी कही भी कर सकते है | इसे किसी भी जाति, धर्म, देश,समुदाय के लोग अपनाकर तन-मन-धन की चिन्ताओ से मुक्त होकर समग्र संतुष्ठी प्राप्त कर सकते है

शम्भवे गुरुवे नम

शिव ईश्वर का रूप हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं।

शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूरत दोनों रूपों में की जाती है | भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है ।भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।

शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि।

पूजन

शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प, प्रसाद मे भान्ग अति प्रिय हैं। एवम इनकी पूजा के लिये दूध,दही,घी,शकर,शहद इन पांच अमृत जिसे पन्चामृत कहा जाता है! पूजन में इनका उपयोग करें। एवम पन्चामृत से स्नान करायें इसके बाद इत्र चढ़ा कर जनेऊ पहनायें! अन्त मे भांग का प्रसाद चढाए ! शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबद्ध हैं। चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है।

द्वादश ज्योतिर्लिंग

सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन श्री शैलम देवस्थानम उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर परली में वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमाशंकर सेतुबंध पर श्री रामेश्वर दारुकावन में श्रीनागेश्वर मंदिर, द्वारका वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर हिमालय पर केदारखंड(उत्तराखण्ड) में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर।

जो मनुष्य पवित्र ह्रदय से इन ज्योतिर्लिंगों का ध्यान करता है उसकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है |

भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है

रूद्र -               रूद्र से अभिप्राय जो दुखों का निर्माण व नाश करता है।

पशुपतिनाथ - भगवान शिव को पशुपति इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पशु पक्षियों व जीवआत्माओं के स्वामी हैं

अर्धनारीश्वर - शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ।

महादेव -        महादेव का अर्थ है महान ईश्वरीय शक्ति।

भोला -          भोले का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वाला। यह विश्वास किया जाता है कि भगवान शंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं।

लिंगम -        पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है।

नटराज -      नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी हैं।शान्ति नगर स्थित शिवशक्ति दुर्गा मंदिर के पं. सोहनानंद जी महाराज ने बताया कि शिवरात्रि को रात्रि में चार बार हर तीन घंटे बाद रुद्राभिषेक किया जाता है। इससे जातक का कालसर्प दोष व सभी गृहदोष दूर हो जाते हैं।

शम्भवे गुरुवे नम

गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं।

गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं।

वह सद्गुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।

गुरु की महिमा

(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचन से)

वास्तव मेँ गुरु की महिमा का पूरा वर्णन कोई कर सकता ही नहीँ । गुरु की महिमा भगवान से भी अधिक है । इसलिये शास्त्रोँ मेँ गुरु की बहुत महिमा आयी है । परंतु वह महिमा सच्चाई की है, दम्भ-पाखण्ड की नहीँ । आजकल दम्भ-पाखण्ड बहुत हो गया है और बढ़ता ही जा रहा है । कौन अच्छा है और कौन बुरा-इसका जल्दी पता लगता नहीँ । जो बुराई बुराई के रुप मेँ आती है, उसको मिटाना सुगम होता है । परंतु जो बुराई अच्छाई के रुप मेँ आती है, उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है । सीताजी के सामने रावण, राजा प्रतापभानु के सामने कपट मुनि और हनुमान जी के सामने कालनेमि आये तो वे उनको पहचान नहीँ सके, उनके फेरे मेँ आ गये; क्योँकि उनका स्वाँग साधुओँ का था । आजकल भी शिष्योँ की अपने गुरु के प्रति जैसी श्रद्धा देखने मेँ आती है, वैसा गुरु स्वयं होता नहीँ । इसलिये सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका कहते थे कि आजकल के गुरुओँ मेँ हमारी श्रद्धा नहीँ होती, प्रत्युत उनके चेलोँ मेँ श्रद्धा होती है ! कारण कि चेलोँ मेँ अपने गुरु के प्रति जो श्रद्धा है, वह आदरणीय है ।

शास्त्रोँ मेँ आयी गुरु-महिमा ठीक होते हुए भी वर्तमान मेँ प्रचार के योग्य नहीँ है । कारण कि आजकल दम्भी-पाखण्डी लोग गुरु-महिमा के सहारे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैँ । इसमेँ कलियुग भी सहायक है; क्योँकि कलियुग अधर्मका मित्र है- 'कलिनाधर्ममित्रेण' (पद्मपुराण, उत्तर॰ 193 । 31) । वास्तव मेँ गुरु-महिमा प्रचार करने के लिये नहीँ है, प्रत्युत धारण करने के लिये है । कोई गुरु खुद ही गुरु-महिमा की बातेँ कहता है, गुरु-महिमा की पुस्तकोँ का प्रचार करता है तो इससे सिद्ध होता है कि उसके मन मेँ गुरु बनने की इच्छा है । जिसके भीतर गुरु बनने की इच्छा होती है, उससे दूसरोँ का भला नहीँ हो सकता । इसलिये मैँ गुरु का निषेध नहीँ करता हूँ, प्रत्युत पाखण्ड का निषेध करता हूँ । गुरु का निषेध तो कोई कर सकता ही नहीँ ।

गुरु की महिमा वास्तवमेँ शिष्य की दृष्टि से है, गुरुकी दृष्टि से नहीँ । एक गुरु की दृष्टि होती है, एक शिष्य की दृष्टि होती है और एक तीसरे आदमी की दृष्टि होती है । गुरु की दृष्टि यह होती है कि मैँने कुछ नहीँ किया, प्रत्युत जो स्वतः-स्वाभाविक वास्तविक तत्त्व है, उसकी तरफ शिष्य की दृष्टि करा दी । तात्पर्य हुआ कि मैँने उसी के स्वरुप का उसी को बोध कराया है, अपने पास से उसको कुछ दिया ही नहीँ । चेले की दृष्टि यह होती है कि गुरु ने मेरे को सब कुछ दे दिया । जो कुछ हुआ है, सब गुरु की कृपा से ही हुआ है । तीसरे आदमी की दृष्टि यह होती है कि शिष्य की श्रद्धा से ही उसको तत्त्वबोध हुआ है ।

असली महिमा उस गुरु की है, जिसने गोविन्द से मिला दिया है । जो गोविन्द से तो मिलाता नहीँ, कोरी बातेँ ही करता है, वह गुरु नहीँ होता । ऐसे गुरु की महिमा नकली और केवल दूसरोँ को ठगने के लिये होती है !

- ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी

गुरु की महिमा

गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। ‘व्यास’ का शाब्दिक संपादक, वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18 पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। ‘‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’’ अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुत्व है। आगम-निगम-पुराण का निरंतर संपादन ही व्यास रूपी सद्गुरु शिष्य को परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार का माध्यम है। जिससे मिलती है सारूप्य मुक्ति। तभी कहा गया- ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।’’ आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनका मूल कारण है गुरु-शिष्य परंपरा का टूटना। श्रद्धावाल्लभते ज्ञानम्। आज गुरु-शिष्य में भक्ति का अभाव गुरु का धर्म ‘‘शिष्य को लूटना, येन केन प्रकारेण धनार्जन है’’ क्योंकि धर्मभीरुता का लाभ उठाते हुए धनतृष्णा कालनेमि गुरुओं को गुरुता से पतित करता है। यही कारण है कि विद्या का लक्ष्य ‘मोक्ष’ न होकर धनार्जन है। ऐसे में श्रद्धा का अभाव स्वाभाविक है। अन्ततः अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचारादि कदाचार बढ़ा। व्यासत्व यानी गुरुत्व अर्थात् संपादकत्व का उत्थान परमावश्यक है।

व्रत और विधान

इस दिन (गुरु पूजा के दिन) प्रात:काल स्नान पूजा आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर उत्तम और शुद्ध वस्त्र धारण कर गुरु के पास जाना चाहिए। गुरु को ऊंचे सुसज्जित आसन पर बैठाकर पुष्पमाला पहनानी चाहिए। इसके बाद वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर तथा धन भेंट करना चाहिए। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक पूजन करने से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। गुरु के आशीर्वाद से ही विद्यार्थी को विद्या आती है। उसके हृदय का अज्ञानता का अन्धकार दूर होता है। गुरु का आशीर्वाद ही प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी, ज्ञानवर्धक और मंगल करने वाला होता है। संसार की संपूर्ण विद्याएं गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती हैं और गुरु के आशीर्वाद से ही दी हुई विद्या सिद्ध और सफल होती है। गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए। इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।
इस पर्व को श्रद्धापूर्वक मनाना चाहिए, अंधविश्वासों के आधार पर नहीं। गुरु पूजन का मन्त्र है-

‘गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:।’

गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।

क्या करें गुरु पूर्णिमा के दिन
मानसी गंगा पर स्नान करते श्रद्धालु, गोवर्धन, मथुरा प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके तैयार हो जाएं। घर के किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर 12-12 रेखाएं बनाकर व्यास-पीठ बनाना चाहिए। फिर हमें ‘गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये’ मंत्र से पूजा का संकल्प लेना चाहिए। तत्पश्चात दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ना चाहिए। फिर व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम, मंत्र से पूजा का आवाहन करना चाहिए। अब अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा करके उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देना चाहिए।

आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मानने का क्या राज़ है? धर्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है। सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह तुम्हें खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णिमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा आषाढ़ में पूर्णिमा दिखाई भी न पड़ेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश खुला न होगा। और भी प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों नहीं चुन लिया? लेकिन चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है।
वह यह है कि गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से। शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।

गुरु का महत्व


गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है –

गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।

जों बिरंचि संकर सम होई।।

भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं –

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।

अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।

किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है? अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू की आवश्यकता होती है।

सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।

तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।

सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।

मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेनाअज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।

किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि

यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान,

शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।

गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।

गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।

सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।

आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन को यही संदेश दिया था –

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच: ।। (गीता 18/66)

अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए। 
 

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