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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Friday, July 19, 2013

गुरु पूर्णिमा आषाढ़, शुक्ल पक्ष, 2070 विक्रम सम्वत, सोमवार, 22 जुलाई 2013



गुरु पूर्णिमा आषाढ़, शुक्ल पक्ष, 2070 विक्रम सम्वत, सोमवार, 22 जुलाई 2013

गुरु की महिमा

(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचन से)


वास्तव मेँ गुरु की महिमा का पूरा वर्णन कोई कर सकता ही नहीँ । गुरु की महिमा भगवान से भी अधिक है । इसलिये शास्त्रोँ मेँ गुरु की बहुत महिमा आयी है । परंतु वह महिमा सच्चाई की है, दम्भ-पाखण्ड की नहीँ । आजकल दम्भ-पाखण्ड बहुत हो गया है और बढ़ता ही जा रहा है । कौन अच्छा है और कौन बुरा-इसका जल्दी पता लगता नहीँ । जो बुराई बुराई के रुप मेँ आती है, उसको मिटाना सुगम होता है । परंतु जो बुराई अच्छाई के रुप मेँ आती है, उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है । सीताजी के सामने रावण, राजा प्रतापभानु के सामने कपट मुनि और हनुमान जी के सामने कालनेमि आये तो वे उनको पहचान नहीँ सके, उनके फेरे मेँ आ गये; क्योँकि उनका स्वाँग साधुओँ का था । आजकल भी शिष्योँ की अपने गुरु के प्रति जैसी श्रद्धा देखने मेँ आती है, वैसा गुरु स्वयं होता नहीँ । इसलिये सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका कहते थे कि आजकल के गुरुओँ मेँ हमारी श्रद्धा नहीँ होती, प्रत्युत उनके चेलोँ मेँ श्रद्धा होती है ! कारण कि चेलोँ मेँ अपने गुरु के प्रति जो श्रद्धा है, वह आदरणीय है ।

शास्त्रोँ मेँ आयी गुरु-महिमा ठीक होते हुए भी वर्तमान मेँ प्रचार के योग्य नहीँ है । कारण कि आजकल दम्भी-पाखण्डी लोग गुरु-महिमा के सहारे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैँ । इसमेँ कलियुग भी सहायक है; क्योँकि कलियुग अधर्मका मित्र है- 'कलिनाधर्ममित्रेण' (पद्मपुराण, उत्तर॰ 193 । 31) । वास्तव मेँ गुरु-महिमा प्रचार करने के लिये नहीँ है, प्रत्युत धारण करने के लिये है । कोई गुरु खुद ही गुरु-महिमा की बातेँ कहता है, गुरु-महिमा की पुस्तकोँ का प्रचार करता है तो इससे सिद्ध होता है कि उसके मन मेँ गुरु बनने की इच्छा है । जिसके भीतर गुरु बनने की इच्छा होती है, उससे दूसरोँ का भला नहीँ हो सकता । इसलिये मैँ गुरु का निषेध नहीँ करता हूँ, प्रत्युत पाखण्ड का निषेध करता हूँ । गुरु का निषेध तो कोई कर सकता ही नहीँ ।




गुरु की महिमा वास्तवमेँ शिष्य की दृष्टि से है, गुरुकी दृष्टि से नहीँ । एक गुरु की दृष्टि होती है, एक शिष्य की दृष्टि होती है और एक तीसरे आदमी की दृष्टि होती है । गुरु की दृष्टि यह होती है कि मैँने कुछ नहीँ किया, प्रत्युत जो स्वतः-स्वाभाविक वास्तविक तत्त्व है, उसकी तरफ शिष्य की दृष्टि करा दी । तात्पर्य हुआ कि मैँने उसी के स्वरुप का उसी को बोध कराया है, अपने पास से उसको कुछ दिया ही नहीँ । चेले की दृष्टि यह होती है कि गुरु ने मेरे को सब कुछ दे दिया । जो कुछ हुआ है, सब गुरु की कृपा से ही हुआ है । तीसरे आदमी की दृष्टि यह होती है कि शिष्य की श्रद्धा से ही उसको तत्त्वबोध हुआ है ।


असली महिमा उस गुरु की है, जिसने गोविन्द से मिला दिया है । जो गोविन्द से तो मिलाता नहीँ, कोरी बातेँ ही करता है, वह गुरु नहीँ होता । ऐसे गुरु की महिमा नकली और केवल दूसरोँ को ठगने के लिये होती है !

- ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी

आज का दिन गुरु–पूजा का दिन होता है। इस दिन गुरु की पूजा की जाती है। पूरे भारत में यह पर्व बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। वैसे तो ‘व्यास’ नाम के कई विद्वान हुए हैं परंतु व्यास ऋषि जो चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता थे, आज के दिन उनकी पूजा की जाती है। हमें वेदों का ज्ञान देने वाले व्यास जी ही थे। अत: वे हमारे ‘आदिगुरु’ हुए। उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए हमें अपने-अपने गुरुओं को व्यास जी का अंश मानकर उनकी पूजा करनी चाहिए। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण करते थे तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु की पूजा किया करते थे और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा अर्पण किया करते थे। इस दिन केवल गुरु की ही नहीं अपितु कुटुम्ब में अपने से जो बड़ा है अर्थात माता-पिता, भाई-बहन आदि को भी गुरुतुल्य समझना चाहिए।

वेद व्यास जयंती
गुरु पूर्णिमा जगत गुरु माने जाने वाले वेद व्यास को समर्पित है। माना जाता है कि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ मास की पूर्णिमा को हुआ था। वेदों के सार ब्रह्मसूत्र की रचना भी वेदव्यास ने आज ही के दिन की थी। वेद व्यास ने ही वेद ऋचाओं का संकलन कर वेदों को चार भागों में बांटा था। उन्होंने ही महाभारत, 18 पुराणों व 18 उप पुराणों की रचना की थी जिनमें भागवत पुराण जैसा अतुलनीय ग्रंथ भी शामिल है। ऐसे जगत गुरु के जन्म दिवस पर गुरु पूर्णिमा मनाने की परंपरा है।

गुरुपूर्णिमा का महत्व

गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वर, गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:
अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं। गुरु के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा। गुरु के लिए पूर्णिमा से बढ़कर और कोई तिथि नहीं हो सकती। जो स्वयं में पूर्ण है, वही तो पूर्णत्व की प्राप्ति दूसरों को करा सकता है। पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति जिसके जीवन में केवल प्रकाश है, वहीं तो अपने शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान रूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है। इस दिन हमें अपने गुरुजनों के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। गुरु कृपा असंभव को संभव बनाती है। गुरु कृपा शिष्य के हृदय में अगाध ज्ञान का संचार करती है।

गुरु की महिमा

गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। ‘व्यास’ का शाब्दिक संपादक, वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18 पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। ‘‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’’ अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुत्व है। आगम-निगम-पुराण का निरंतर संपादन ही व्यास रूपी सद्गुरु शिष्य को परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार का माध्यम है। जिससे मिलती है सारूप्य मुक्ति। तभी कहा गया- ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।’’ आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनका मूल कारण है गुरु-शिष्य परंपरा का टूटना। श्रद्धावाल्लभते ज्ञानम्। आज गुरु-शिष्य में भक्ति का अभाव गुरु का धर्म ‘‘शिष्य को लूटना, येन केन प्रकारेण धनार्जन है’’ क्योंकि धर्मभीरुता का लाभ उठाते हुए धनतृष्णा कालनेमि गुरुओं को गुरुता से पतित करता है। यही कारण है कि विद्या का लक्ष्य ‘मोक्ष’ न होकर धनार्जन है। ऐसे में श्रद्धा का अभाव स्वाभाविक है। अन्ततः अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचारादि कदाचार बढ़ा। व्यासत्व यानी गुरुत्व अर्थात् संपादकत्व का उत्थान परमावश्यक है।

व्रत और विधान

इस दिन (गुरु पूजा के दिन) प्रात:काल स्नान पूजा आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर उत्तम और शुद्ध वस्त्र धारण कर गुरु के पास जाना चाहिए। गुरु को ऊंचे सुसज्जित आसन पर बैठाकर पुष्पमाला पहनानी चाहिए। इसके बाद वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर तथा धन भेंट करना चाहिए। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक पूजन करने से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। गुरु के आशीर्वाद से ही विद्यार्थी को विद्या आती है। उसके हृदय का अज्ञानता का अन्धकार दूर होता है। गुरु का आशीर्वाद ही प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी, ज्ञानवर्धक और मंगल करने वाला होता है। संसार की संपूर्ण विद्याएं गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती हैं और गुरु के आशीर्वाद से ही दी हुई विद्या सिद्ध और सफल होती है। गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए। इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।
इस पर्व को श्रद्धापूर्वक मनाना चाहिए, अंधविश्वासों के आधार पर नहीं। गुरु पूजन का मन्त्र है-

‘गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:।’

गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।

क्या करें गुरु पूर्णिमा के दिन

मानसी गंगा पर स्नान करते श्रद्धालु, गोवर्धन, मथुरा प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके तैयार हो जाएं। घर के किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर 12-12 रेखाएं बनाकर व्यास-पीठ बनाना चाहिए। फिर हमें ‘गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये’ मंत्र से पूजा का संकल्प लेना चाहिए। तत्पश्चात दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ना चाहिए। फिर व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम, मंत्र से पूजा का आवाहन करना चाहिए। अब अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा करके उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देना चाहिए।

आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मानने का क्या राज़ है? धर्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है। सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह तुम्हें खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णिमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा आषाढ़ में पूर्णिमा दिखाई भी न पड़ेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश खुला न होगा। और भी प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों नहीं चुन लिया? लेकिन चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है।
वह यह है कि गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से। शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।


गुरु का महत्व


गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है –

गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।

जों बिरंचि संकर सम होई।।


भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं –

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।


अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।

किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है? अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू की आवश्यकता होती है।

सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।

तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।

सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।


मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेनाअज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।

किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि

यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान,

शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।


गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।

गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।

सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।

आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन को यही संदेश दिया था –

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच: ।। (गीता 18/66)


अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए।

ज्ञान की महिमा

जन्म से मनुष्य अपूर्ण होता है,ज्ञान के द्वारा ही उसमे पूर्नता आती है,ब्रहमरूप परमात्मा की की सत्ता में आध्यात्मिक,आधिदैविक,और आधिभौतिक तीनो सक्तियां वर्तमान है.पादेन्द्रिय को अध्यात्म,गन्तव्य को आधिभूत,और विष्णु को अधिदेव माना गया है,इसी प्रकार से वागेन्द्रिय तथा चक्षुरिन्द्रिय को क्रमश: अध्यात्म,वक्तव्य,और रूप को अधिभूत,अगिनि और सूर्य को अधिदैव कहते हैं,इसी क्रम से प्राणी के भी तीन भाव होते हैं,आधिभौतिक शरीर,आधिदैविक मन,और आध्यात्मिक बुद्धि,इन तीनो के सामजस्य से ही मनुष्य में पूर्णता आती है,इस पूर्णता की प्राप्ति के लिये ईश्वर से नि:स्वासित वेद का अध्ययन और अभ्यास आवश्यक है,क्योंकि वेद मन्त्रों में मूलरूप से इसके उपाय निरूपित हैं,मनुष्य को आधिभौतिक शुद्धि कर्म के द्वारा,आधिदैविक शुद्धि उपासना के द्वारा तथा आध्यात्मिक शुद्धि ज्ञान के द्वारा प्राप्त होती है.आध्यात्मिक शुद्धि प्राप्त होने पर परमात्मा की उपलब्धि हो जाती है,और मनुष्य को मोक्ष मिल जाता है.वेद मे कहा गया कि ज्ञान के बिना मुक्ति नही मिलती,यह बात ही ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता की परिचायक है.ज्ञान तत्वज्ञानी गुरु की नि:स्वार्थ सेवा तथा उनमे श्रद्धा रखने से प्राप्त होती है,तत्वज्ञानी गुरु अपने शिष्य की सेवा,जिज्ञासा,तथा श्रद्धा से संतुष्ट होकर उसे ज्ञानोपदेश देते हैं,ज्ञान संसार में सर्वाधिक पवित्र वस्तु है,योगी को भी पूर्ण योगसिद्धि मिलने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है.,ज्ञानमार्ग मे प्रवेश करने का अधिकार चार प्रकार के साधनो से पूर्ण व्यक्ति को दिया गया है,नित्यनित्य वस्तु विवेक,इहामुत्र फ़ल्भोगाविराग,शमदमादि षटसम्पत्ति और मुमुक्षुत्व चार प्रकार के साधन बताये गये हैं.पहले प्रकार मे आत्मा की नित्यता और संसार की अनित्यता का विचार आता है,दूसरे के अन्तर्गत इहलोक और परलोक सुख भोग के प्रति विरक्त भाव निहित है,तीसरे मे शम दम तितिक्षा उपरति श्रद्धा और समाधान इन छ: सम्पत्तियों का संचय होता है,तत्वज्ञान को छोडकर,अन्य विषयों के सेवन से विरक्ति होना शम है,इन्द्रियों का दमन दम है,भोगों से निवृत्ति उपरति है,ठंड गर्मी आदि को सहन करने शक्ति तितिक्षा,गुरु और शास्त्र मे अटूट विश्वास श्रद्धा,और परमात्मा के चिन्तन में एकाग्रता समाधान कहे जाते हैं,चौथा साधन मोक्ष प्राप्त करना ही मुमुक्षुत्व है,यह चारो साधन ज्ञानमार्गी के लिये आवश्यक है,इनके अभाव में कोई भी व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी नही है,ज्ञानप्राप्ति के श्रवण,मनन,और निदिध्यासन,तीन अंग है,गुरु से तत्वज्ञान सुनने को श्रवण,उसपर चिन्तन करने का नाम मनन,और मननकृत पदार्थों की उपलब्धि का नाम निदिध्यासन है,इनके सम्यक और उचित अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्मरूप का साक्षात्कार होता है,इस तरह प्रकृति के सभी भागों पर चिन्तन करते हुए,साधक स्थूल से लेकर सूक्षम भावों तक अपना अधिकार प्राप्त कर लेता है,(सांख्यदर्शन) के अनुसार पंचमहाभूत,पंचकर्मेन्द्रियां,पंचतन्मात्रा,मन,अहंकार,महतत्व,और प्रकृति इन चौबीस तत्वओं के आयाम में सृष्टि के प्राणी अर्थात पुरुष प्रक्रुति का उपभोग कर रहे है,पर वेदान्त प्रक्रिया में प्राणी की रचना के ज्ञानार्थ पंचकोषों का निरूपण होता है,तदनुसार चेतन जीव के माया से मोहित होने की स्थिति आनन्दमय कोष है,बुद्धि और विचार विज्ञान मय,ज्ञानेन्द्रिय और मन मनोमय,पंचप्राण और कर्मेन्द्रिय प्राणमय, और पंचभौतिक शरीर अन्नमय कोष हैं,इन कोषों में बद्ध होकर मनुष्य या जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है,लेकिन गुरु का उपदेश मिलने पर जब उसे अपने वास्तविक सच्चिदानन्द ब्रह्मस्वरूप का अनुभव होता है,तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है,जीव को माया से मुक्त और मोक्ष तक पहुँचाने वाली क्रमिक स्थिति की सप्त भूमियां हैं,स्थूल दर्शी पुरुष के लिये सीधे आत्मा का ज्ञान होना असम्भव है,इसलिये प्राचीन महर्षियों ने इन सप्त ज्ञानभूमियों के निरन्तर अभ्यास से क्रमोन्नति करते हुए विज्ञानमय सप्त दर्शनों के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग बनाया,सप्त ज्ञानभूमियों के सप्त दर्शनो का नाम है-न्याय,वैशेषिक,पातन्जल,सांख्यपूर्वमीमांसा,दैवीमीमांसा,और ब्रह्ममीमांसा,क्रमश: इनकी साधना करके जीव ज्ञानमय बुद्धि हो जाने से प्रम पद को प्राप्त होता है,ज्ञानप्राप्ति के ये ही मूलतत्व हैं.

ब्रहममीमांसा या वेदान्त विचार के द्वारा साधक को ब्रहमज्ञान तब प्राप्त होता है,जब वह देहात्मवाद से क्रमश: आस्तिकता की उच भूमि पर अग्रसर होता है,अत:ऐसे साधक को एकाएक "तत्वमसि" या "अहम ब्रह्मास्मि" का उपदेश नही देना चाहिये,ज्ञानमार्ग में प्रथम प्रवेश पाने वाले प्रथम अधिकारी के लिये अन्त:करण के सुख दुख रूप आत्मतत्व के उपदेश का न्याय वैशेषिक दर्शन में विधान है,देह को आत्मा समझने वाले व्यक्ति के लिये प्रथम कक्षा में देह और आत्मा की भिन्नता का ज्ञान ही पर्याप्त है,सूक्षम तत्व में सामान्य व्यक्ति का एकाएक प्रवेश नही हो सकता है, इसलिये न्याय और वैशेषिक दर्शन में आत्मा और शरीर के अलग होने का ज्ञान कराया जाता है,इससे साधक देहात्मवाद से विरत हो व्यावहारिक तत्वज्ञान की ओर अग्रसर होता है,इससे आगे बढने पर सांख्य और पातन्जल दर्शन आत्मा के और भी उच्चतर स्तर का दर्शन करवाते है,इन दोनो दर्शनो के अनुसार सुख-दुख आदि सब अन्त:करण के धर्म हैं,पुरुष को वहां असंग और कूटस्थ माना गया है,पुरुष के अन्त:करण में सुख-दुखादि का भोक्तृ भाव औपचारिक है,तात्विक इसलिये नही है,कि आत्मा निर्लिप्त और निष्क्रिय है,इससे यही निष्कर्ष निकला कि सांख्य और पातन्जल दर्शन से आत्मा की असंगता तो सिद्ध होती है,पर एकात्मवाद नही.

सांख्य में बहुपुरुषवाद की कल्पना की गयी है,उससे परमात्मा की अद्वितीय उपलब्धि नही होती,अपितु वह प्रत्येक पिण्ड में अलग अलग कूटस्थ चैतन्य के रूप में ज्ञात होता है,इस तरह से सांख्य की ज्ञानभूमि पुरुषमूलक है,प्रकृति के आस्तित्व की स्वीकृति के कारण वहां प्रक्रुति को अनादि और अनन्त कहा गया है.

कर्म मीमांसा या पूर्वमीमांसा में जगत को ही ब्रह्म मानकर, अद्वितीयता की सिद्धि की गयी है,इससे जीव द्वैतमय जगत से अद्वैत्मय ब्रह्म की ओर जाता है,इससे साधक की गति ब्रह्म के तटस्थ स्वरूप की ओर होती है,इसके अनन्तर दैवीमीमांसा आती है,यह वह उपासना भूमि है जो ब्रह्म की अद्वितीयता को प्रक्रुति के साथ मिश्रित कर उसको शुद्ध स्वरूप की ओर दिखाती है,वहां ब्रह्म को ही जगत की संज्ञा दी जाती है,इसमे आत्मा का यथार्थ ज्ञान प्रक्रुति के ज्ञान के साथ होता है,(मुण्डकोपनिषद) के अनुसार ब्रह्म सत्ता अघ:,ऊर्ध्व सर्वत्र व्याप्त है,(श्वेताश्वतरोपनिषद) में भी अग्नि आदित्य वायु चन्द्र और नक्षत्रादि को ब्रह्म रूप माना गया है,वहां परमात्मा को ब्रहमाण्ड के सम्पूर्ण चराचर रूप में वर्णित किया गया है,और उसे स्त्री-पुरुष बालक युवक और वृद्ध सभी रूपों मे देखा गया है,इस तरह से दैवीमीमांसा दर्शन की ज्ञान भूमि में परमात्मा को व्यापक निर्लिप्त नित्य और अद्वितीय कार्यब्रह्म के रूप में स्वीकार किया है.

ज्ञान की सप्तम भूमि ब्रह्ममीमांसा वेदान्त की है,इससे निरूपित ब्रह्म निर्गुण और प्रकृति से परे है,उसमे माया अथवा प्रकृति का आभास भी नही है,माया उसके नीचे ब्रह्म के ईश्वर भाव से सम्बद्ध है,वेद के अनुसार परमात्मा के चार पादों मे से एक पाद मायाच्छन्न और सृष्ति विलासित है,और शेष तीन माया से परे अमृत हैं,यह तीनो ही ब्रह्म भाव हैं,यहां सांख्य दर्शन का मायागत पुरुषवाद नही है,यहां माया का लय है,इसीलिये वेदान्त में माया को अनादि कहकर भी शान्त किया गया है,माया का एकान्त अभाव होने से शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप परब्रह्म का साक्षात्कार होता है,निर्गुण ब्रह्म देश काल और वस्तु से परे है,इसीलिये वह नित्य विभु और पूर्ण है,राजयोगी इसी निर्गुण परब्रह्म भाव का अनुभव करता है,साधक इस दशा में निर्विकल्प समाधि धारण करता है.

परब्रह्मपरमात्मा स्वयं प्रकाशमान है,वह सर्वातीत और निरपेक्ष है,उन्ही के तेजोमय प्रकाश से सूर्य,और सूर्य से चन्द्र,नक्षत्र,बिजली आदि प्रकाशमान है,इन सबका प्रतिपादन वेदान्तभूमि मे है,इसी की उपल्ब्धि से साधक को निर्वाण की प्राप्ति होती है,यही जीवन यज्ञ का अवसान और ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति है.

वेदों मे समुच्चय रूप में तीन विषयों का प्रतिपादन हुआ है, कर्मकाण्ड,ज्ञानकाण्ड,और उपासना काण्ड,ज्ञानकाण्ड वह है,जिससे इहलोक,परलोक,और परमात्मा के सम्बन्ध में वास्तविक रहस्य की बातें जानी जाती हैं,इससे मनुष्य के स्वार्थ,परमार्थ,और परार्थ की सिद्धि की जाती है, 


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