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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Thursday, July 26, 2012

!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!


!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!
!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!
!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!
!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!

 हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.


ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि


ईश्वर के अंश होने के कारण हम परम आनंद को पाने के अधिकारी हैं, चेतना के उस दिव्य स्तर तक पहुंचने के अधिकारी हैं जहाँ विशुद्ध प्रेम, सुख, ज्ञान, शक्ति, पवित्रता और शांति है. सम्पूर्ण प्रकृति भी तब हमारे लिये सुखदायी हो जाती है.  इस स्थिति को केवल अनुभव किया जा सकता है यह स्थूल नहीं है अति सूक्ष्म है परम की अनुभूति अंतर को अनंत सुख से ओतप्रोत कर देती है, और परम तक ले जाने वाला कोई सदगुरु ही हो सकता है. सर्व भाव से उस सच्चिदानंद की शरण में जाने की विधि वही सिखाते हैं. हम देह नहीं हैं, देही हैं, जिसे शास्त्रों में जीव कहते हैं. जीव परमात्मा का अंश है, उसके लक्षण भी वही हैं जो परमात्मा के हैं. वह भी शाश्वत, चेतन तथा आनन्दस्वरूप है.
थोड़ी-थोड़ी देर मेँ पुकारते रहेँ-
हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैँ आपको भूलूँ नहीँ ।



स्वामी रामसुखदास जी महाराज
नारायण! नारायण! नारायण! नारायण! नारायण!
राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम
श्री मन नारायण नारायण नारायण......श्री मन नारायण नारायण नारायण......
श्री मन नारायण नारायण नारायण......श्री मन नारायण नारायण नारायण...... 
ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय

राधा श्री राधा
राधा श्री राधा रटूं, निसि-निसि आठों याम।
जा उर श्री राधा बसै, सोइ हमारो धाम
        जब-जब इस धराधाम पर प्रभु अवतरित हुए हैं उनके साथ साथ उनकी आह्लादिनी शक्ति भी उनके साथ ही रही हैं। स्वयं श्री भगवान ने श्री राधा जी से कहा है - "हे राधे! जिस प्रकार तुम ब्रज में श्री राधिका रूप से रहती हो, उसी प्रकार क्षीरसागर में श्री महालक्ष्मी, ब्रह्मलोक में सरस्वती और कैलाश पर्वत पर श्री पार्वती के रूप में विराजमान हो।" भगवान के दिव्य लीला विग्रहों का प्राकट्य ही वास्तव में अपनी आराध्या श्री राधा जू के निमित्त ही हुआ है। श्री राधा जू प्रेममयी हैं और भगवान श्री कृष्ण आनन्दमय हैं। जहाँ आनन्द है वहीं प्रेम है और जहाँ प्रेम है वहीं आनन्द है। आनन्द-रस-सार का धनीभूत विग्रह स्वयं श्री कृष्ण हैं और प्रेम-रस-सार की धनीभूत श्री राधारानी हैं अत: श्री राधा रानी और श्री कृष्ण एक ही हैं। श्रीमद्भागवत् में श्री राधा का नाम प्रकट रूप में नहीं आया है, यह सत्य है। किन्तु वह उसमें उसी प्रकार विद्यमान है जैसे शरीर में आत्मा। प्रेम-रस-सार चिन्तामणि श्री राधा जी का अस्तित्व आनन्द-रस-सार श्री कृष्ण की दिव्य प्रेम लीला को प्रकट करता है। श्री राधा रानी महाभावरूपा हैं और वह नित्य निरंतर आनन्द-रस-सार, रस-राज, अनन्त सौन्दर्य, अनन्त ऐश्‍वर्य, माधुर्य, लावण्यनिधि, सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण को आनन्द प्रदान करती हैं। श्री कृष्ण और श्री राधारानी सदा अभिन्न हैं। श्री कृष्ण कहते हैं - "जो तुम हो वही मैं हूँ हम दोनों में किंचित भी भेद नहीं हैं। जैसे दूध में श्‍वेतता, अग्नि में दाहशक्ति और पृथ्वी में गंध रहती हैं उसी प्रकार मैं सदा तुम्हारे स्वरूप में विराजमान रहता हूँ।"


श्रीराधा सर्वेश्वरी, रसिकेश्वर घनश्याम। करहुँ निरंतर बास मैं, श्री वृन्दावन धाम॥


        वृन्दावन लीला लौकिक लीला नहीं है। लौकिक लीला की दृष्टी से तो ग्यारह वर्ष की अवस्था में श्री कृष्ण ब्रज का परित्याग करके मथुरा चले गये थे। इतनी लघु अवस्था में गोपियों के साथ प्रणय की कल्पना भी नहीं हो सकती परन्तु अलौकिक जगत में दोनों सर्वदा एक  ही हैं फ़िर भी श्री कृष्ण ने श्री ब्रह्मा जी को श्री राधा जी के दिव्य चिन्मय प्रेम-रस-सार विग्रह का दर्शन कराने का वरदान दिया था, उसकी पूर्ति के लिये एकान्त अरण्य में ब्रह्मा जी को श्री राधा जी के दर्शन कराये और वहीं ब्रह्मा जी के द्वारा रस-राज-शेखर श्री कृष्ण और महाभाव स्वरूपा श्री राधा जी की विवाह लीला भी सम्पन्न हुई।


गोरे मुख पै तिल बन्यौ, ताहिं करूं प्रणाम। मानों चन्द्र बिछाय कै पौढ़े शालिग्राम॥


            रस राज श्री कृष्ण आनन्दरूपी चन्द्रमा हैं और श्री प्रिया जू उनका प्रकाश है। श्री कृष्ण जी लक्ष्मी को मोहित करते हैं परन्तु श्री राधा जू अपनी सौन्दर्य सुषमा से उन श्री कृष्ण को भी मोहित करती हैं। परम प्रिय श्री राधा नाम की महिमा का स्वयं श्री कृष्ण ने इस प्रकार गान किया है-"जिस समय मैं किसी के मुख से ’रा’ अक्षर सुन लेता हूँ, उसी समय उसे अपना उत्तम भक्ति-प्रेम प्रदान कर देता हूँ और ’धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो मैं प्रियतमा श्री राधा का नाम सुनने के लोभ से उसके पीछे-पीछे चल देता हूँ" ब्रज के रसिक संत श्री किशोरी अली जी ने इस भाव को प्रकट किया है।


आधौ नाम तारिहै राधा।
र के कहत रोग सब मिटिहैं, ध के कहत मिटै सब बाधा॥
राधा राधा नाम की महिमा, गावत वेद पुराण अगाधा।
अलि किशोरी रटौ निरंतर, वेगहि लग जाय भाव समाधा॥
        ब्रज रज के प्राण श्री ब्रजराज कुमार की आत्मा श्री राधिका हैं। एक रूप में जहाँ श्री राधा श्री कृष्ण की आराधिका, उपासिका हैं वहीं दूसरे रूप में उनकी आराध्या एवं उपास्या भी हैं। "आराध्यते असौ इति राधा।" शक्ति और शक्तिमान में वस्तुतः कोई भेद न होने पर भी भगवान के विशेष रूपों में शक्ति की प्रधानता हैं। शक्तिमान की सत्ता ही शक्ति के आधार पर है। शक्ति नहीं तो शक्तिमान कैसे? इसी प्रकार श्री राधा जी श्री कृष्ण की शक्ति स्वरूपा हैं। रस की सत्ता ही आस्वाद के लिए है। अपने आपको अपना आस्वादन कराने के लिए ही स्वयं रसरूप श्यामसुन्दर श्रीराधा बन जाते हैं। श्री कृष्ण प्रेम के पुजारी हैं इसीलिए वे अपनी पुजारिन श्री राधाजी की पूजा करते हैं, उन्हें अपने हाथों से सजाते-सवाँरते हैं, उनके रूठने पर उन्हें मनाते हैं। श्रीकृष्ण जी की प्रत्येक लीला श्री राधे जू की कृपा से ही होती है, यहाँ तक कि रासलीला की अधिष्ठात्री श्री राधा जी ही हैं। इसीलिए ब्रजरस में श्रीराधाजी की विशेष महिमा है।


ब्रज मण्डल के कण कण में है बसी तेरी ठकुराई।
कालिन्दी की लहर लहर ने तेरी महिमा गाई॥
पुलकित होयें तेरो जस गावें श्री गोवर्धन गिरिराई।
लै लै नाम तेरौ मुरली पै नाचे कुँवर कन्हाई॥


श्री कृष्ण


        भगवान श्री कृष्ण वास्तव में पूर्ण ब्रह्म ही हैं। उनमें सारे भूत, भविष्य, वर्तमान के अवतारों का समावेश है। भगवान श्री कृष्ण अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त यश, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य की जीवन्त मूर्ति हैं। वे कभी विष्णु रूप से लीला करते हैं, कभी नर-नारायण रूप से तो कभी पूर्ण ब्रह्म सनातन रूप से। सारांश ये है कि वे सब कुछ हैं, उनसे अलग कुछ भी नहीं। अपने भक्तों के दुखों का संहार करने के लिये वे समय-समय पर अवतार लेते हैं और अपनी लीलाओं से भक्तों के दुखों को हर लेते हैं। उनका मनोहारी रूप सभी की बाधाओं को दूर कर देता है।


        श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं, अतएव उनके द्वारा सभी लीलाओं का सुसम्पन्न होना इष्ट है। वे ही सबके हृदयों में व्याप्त अन्तर्यामी हैं, वे ही सर्वातीत हैं और वे ही सर्वगुणमय, लीलामय, अखिलरसामृतमूर्ति श्री भगवान हैं। पुरुषावतार, गुणावतार, लीलावतार, अंशावतार, कलावतार, आवेशावतार, प्रभवावतार, वैभवावतार और परावस्थावतार-सभी उन्हीं से होता है। उनके प्राकट्य में भी विभिन्न कारण हो सकते हैं और वे सभी सत्य हैं। भगवान श्री कृष्ण के प्राकट्य का समय था भाद्रपद अष्टमी की अर्धरात्रि और स्थान था अत्याचारी कंस का कारागार। पर स्वयं भगवान के प्राकट्य से काल, देश आदि सभी परम धन्य हो गये। उस मंगलमयी घटना को हुए पाँच हजार से अधिक वर्ष बीत चुके हैं परन्तु आज भी प्रति वर्ष श्री कृष्ण जी का प्राकट्योत्सव वही पवित्र भाद्रपद मास के पावनमयी कृष्ण पक्ष की मंगल अष्टमी को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।


        मथुरा नगरी के महाराज उग्रसैन भगवान के भक्त थे, ऋषि-मुनियों की सेवा करना एवं अपनी प्रजा का हमेशा हित चाहना उनके लिये सर्वोपरि था। लेकिन उनका पुत्र कंस बहुत ही अत्याचारी था। प्रजा पर अत्याचार करना, ऋषि-मुनियों के यज्ञ में विघ्न डालना उसको प्रसन्नता प्रदान करता था एवं वह स्वयं को ही भगवान समझता था। एक बार उसने अपने पिता को ही बंदी बना लिया एवं स्वयं मथुरा नगरी का नरेश बन गया और प्रजा पर अत्याचार करने लगा, ऋषि-मुनियों के यज्ञ में विघ्न डालने लगा एवं अपने आपको भगवान कहलवाने के लिये मजबूर करने लगा। कंस ने अपनी बहिन का विवाह वासुदेव जी के साथ कर दिया। तभी भविष्यवाणी हुई कि देवकी का आठवाँ पुत्र ही कंस का काल होगा। इससे भयभीत होकर उसने अपनी बहिन देवकी और वासुदेव जी को कारागार में डाल दिया। मृत्यु के भय से उसने देवकी के छ: पुत्रों को जन्म लेते ही मार दिया। देवकी के सातवे गर्भ को संकर्षण कर योगमाया ने वासुदेव जी की दूसरी पत्‍नि रोहिणीजी के गर्भ में डाल दिया। इसके पश्‍चात् भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की मंगल अष्टमी तिथि को श्री कृष्ण जी ने अवतार लिया। बड़-बड़े देवता तथा मुनिगण आनन्द में भरकर पृथ्वी के सौभाग्य की सराहना करने लगे।


        उनके नैन इस भव बाधा से पार लगा देते हैं। इसीलिए तो किन्हीं संत ने कहा है: -


मोहन नैना आपके नौका के आकार
जो जन इनमें बस गये हो गये भव से पार

ब्रज गोपिकायें उनके मनोहारी रूप की प्रशंसा करते हुए कहती हैं : -
आओ प्यारे मोहना पलक झाँप तोहि लेउं
न मैं देखूं और को न तोहि देखन देउं


कर लकुटी मुरली गहैं घूंघर वाले केस
यह बानिक मो हिय बसौ, स्याम मनोहर वेस
!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!
!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!
!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!



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