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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी न सकूँ.

Saturday, June 30, 2012

नरसी महेता (Narsi)



नरसी महेता (Narsi)
भक्त नरसी महेता का जन्म १५ वीं शताब्दी में सौराष्ट्र के एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बालक नरसी आरम्भ में गूंगे थे। आठ वर्ष के नरसी को उनकी दादी एक सिद्ध महात्मा के पास लेकर गयीं। महात्मा ने बालक को देखते ही भविष्यवाणी की कि भविष्य में यह बालक बहुत बड़ा भक्त होगा। जब दादी ने उसके गूंगा होने कि बात बताई तो महात्मा ने बालक के कान में कहा " बच्चा, कहो राधा-कृष्ण" और देखते ही देखते नरसी "राधा-कृष्ण" का उच्चारण करने लगा।

बाल्यावस्था में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण नरसी का पालन-पोषण उनकी दादी और बड़े भाई ने किया। बालक नरसी बचपन से ही साधु-संतों की सेवा किया करते थे और जहां कहीं भजन-कीर्तन होता था, वहीं जा पहुंचते थे। रात को भजन-कीर्तन में जाते तो उन्हें समय का ख्याल न रहता। रात को देर से घर लौटते तो भाभी की जली-कटी सुननी पड़ती; परन्तु वह उसपर कुछ भी ध्यान न देते और जो भी ठंडा-बासी खाना रखा रहता, उसे खाकर सो जाते।

छोटी अवस्था में ही नरसी का विवाह माणिकबाई नामक किशोरी के साथ कर दिया गया। माणिकबाई जब घर में आईं तो उन्हें भी भाभी की जली कटी सुननी पड़ी। उन्हें अपनी चिन्ता न थी, परन्तु अपने पति को सुनाई जाने वाली भली-बुरी बातों को सुनकर उन्हें बहुत दु:ख होता। उन्होंने पति को कुछ काम-धंधा करने को बहुत समझाया, परन्तु उन पर कुछ भी असर न हुआ। एक बार एक साधु-मंडली आई हुई थी। नरसी उसके साथ भजन-कीर्तन में ऐसे रम गये कि आधी रात बीत जाने पर भी उन्हें घर की सुध नहीं आई। जब वह घर लौटे तो घर के सब लोग सो गये थे। बस माणिकबाई जाग रही थीं। उन्होंने किवाड़ खोले। आहट पाकर भाभी जाग गईं और नींद में खलल पड़ने के कारण उन्होंने वह खरी-खोटी सुनाई कि नरसी के दिल पर उसकी गहरी चोट पहुँची।  दूसरे दिन सूरज निकलने से पहले ही वह घर छोड़कर चले गए। घरवालों ने बहुत खोजा लेकिन उनका पता न चला। कुछ दिनों तक वह लापता रहे।

नरसी को उस रात की घटना से बड़ी ग्लानि हुई। उन्हें अपने पर क्रोध आया और दुनिया से उनकी मोह-ममता टूट गई। उन्हें अपने जीवन का भी मोह न रहा। जूनागढ़ से निकलकर जंगल की ओर चल दिये। जूनागढ़ गिरनार (रैवतक) पहाड़ की तलहटी में बसा हुआ है। गिरनार का जंगल शेर-चीते आदि हिंसक जानवरों के लिए प्रसिद्ध है। उसी घने जंगल में वह घूमते रहे। शायद यह चाह रहे थे कि कोई शेर या चीता आ जाये और उन्हें खत्म कर दे। इतने में उन्हें एक मंदिर दिखाई दिया। मंदिर टूटा-फूटा था, परन्तु उसमें शिवलिंग अखंड था। कई वर्षो से उसकी पूजा नहीं हुई थी। शिवलिंग को देखकर नरसी का हृदय भक्ति से भर गया। उन्होंने शिवलिंगको अपनी बांहों में भर लिया और निश्चय किया कि जब तक शिवजी प्रसन्न होकर दर्शन न देंगे तब तक मैं अन्न -जल ग्रहण नहीं करूंगा। कहते हैं कि उनकी भक्ति तथा अटल निश्चय को देखकर शिवजी प्रसन्न हुए और उन्हें दर्शन देकर मनचाहा वर मांगने को कहा। नरसी का हृदय निर्मल था। उसमें काम, क्रोध आदि बुराइयां नहीं थीं। इसलिए उन्होंने शिवजी से कहा, "भगवान जो आपको सबसे अधिक प्रिय हो, वही दे दें।" शिवजी 'तथास्तु' कहकर उन्हें अपने साथ ले गये। नरसी को बैकुंठ के दर्शन हुए। वहां रासलीला चल रही थी। गोपियों के बीच कृष्ण लीला कर रहे थे। रात के समय का दृश्य अत्यंत सुन्दर था। शिवजी हाथ में मशाल लिये प्रकाश फैला रहे थे। उन्होंने अपने हाथ की मशाल नरसी को दे दी। मशाल पकड़े नरसी रासलीला देखने में इतने लीन हो गए कि जब मशाल की लौ से उनका हाथ जलने लगा तब भी उनको इसका पता न चला। श्रीकृष्ण ने अपने भक्त को देखा और उनके हाथ को ठीक किया। श्रीकृष्ण ने नरसी को भक्तिरस का पान कराया और उन्हें आज्ञा दी कि जैसी रासलीला उन्होंने देखी, उसका गान करते हुए संसार के नर-नारियों को भक्ति-रस का पान कराये। नरसी की वाणी की धारा बहने लगी। उनके भक्ति-भाव-भरे भजन सुनकर लोग लोग मंत्र-मुग्ध होने लगे और उन्हें जगह-जगह गाने लगे।

भक्त नरसी स्वभाव के बड़े नरम थे। जिस भाभी के कठोर वचनों के कारण उन्हें घर छोड़कर जाना पड़ा था, उन्हें भी उन्होंने अपना गुरु माना। नरसी ने कहा कि उन्हीं की वजह से उन्हें भगवान के दर्शन हुए इसलिए उनके उपकार को कैसे भूलूं।

नरसी जूनागढ़ लौट आये और साधु-संतों की सेवा और भजन-कीर्तन करने लगे। घर माणिकबाई संभालती थीं। उनके दो बच्चे थे, एक लड़का और एक लड़की। लड़के का नाम श्रीकृष्ण के नाम पर शामल रखा गया और लड़की का कुंवरबाई।

भजन-कीर्तन के नाम पर जब और जहां चाहो, नरसी महेता को रोक लो। एक बार पिता के श्राद्ध के दिन वह घी लेने बाज़ार गये। वहां कीर्तन की बात चली तो वहीं जम गये। ऐसे जमे कि घर, श्राद्ध, घी और भोजन के लिए बुलाये लोगों को भूल गये। तब भक्तों की विपदा हरने वाले भगवान श्रीकृष्ण को स्वयं नरसी का रूप रखकर उनके घर जाना और श्राद्ध का काम करना पड़ा। नरसी जब घर लौटे तब तक ब्राह्मण खा-पीकर जा चुके थे।

नरसी भजन के लिए हरिजनों के घर भी जाते थे। एक बार जूनागढ़ के अछूत माने जाने वाले लोगों ने नरसी से विनती की कि वह उनके घर में आकर भजन-कीर्तन करें। हरिभक्तों का प्यार भरा बुलावा नरसी कैसे अस्वीकार कर सकते थे? उन्होंने कहा, "जहां छुआ-छूत होती है, वहां परमेश्वर नहीं होते। गोमूत्र छिड़कना, गोबर से लीपना-पोतना और तुलसी का पौधा लगाकर तैयारी करना। मैं रात को अवश्य आऊंगा।"
रात को जाकर उन्होंने सबेरे तक भजन-कीर्तन किया। अपने साथ प्रसाद ले गये थे, उसे बांटा और हरिकथा कहते अपने घर लौट आये।

विवाह के कुछ दिन बाद ही उनके पुत्र शामल का देहांत हो गया। बेटी ससुराल चली गई। अब माणिक अकेली रह गईं। नरसी तो भजन करते  रहते और माणिक घर चलाती। घर में आये साधु-संतों की सेवा में ही उसका समय बीतता। एक दिन इस संसार को छोड़कर अपने पति के चरणों का ध्यान करती हुई चल बसीं। नरसी अब एकदम मुक्त हो गये । उन्होंने कहा, "अच्छा हुआ, यह झंझट भी मिट गया। अब सुख से श्रीगोपाल का भजन करेंगे। "नरसी भक्त थे, सरल थे, सबका भला चाहते थे और साधु-संतों की सेवा करते रहते थे, पर लोग उन्हें शांति से भजन-कीर्तन नहीं करने देना चाहते थे। वे उन्हें तंग करते थे, चिढ़ाते थे और तरह-तरह की बातें कहते थे, पर नरसी उस कभी ध्यान नहीं देते थे।

एक बार कुछ यात्री जूनागढ़ आये। उन्हें द्वारिका जाना था। पास में जो रकम थी, वह वे साथ रखना नहीं चाहते थे, क्योंकि उस समय जूनागढ़ से द्वारिका का रास्ता बीहड़ था और चोर-डाकुओं का डर था। वे किसी सेठ के यहां अपनी रकम रखकर द्वारिका के लिए उसकी हुंडी ले जाना चाहते थे। उन्होंने किसी नागर भाई से ऐसे किसी सेठ का नाम पूछा। उस आदमी ने मज़ाक में नरसी का नाम और घर बता दिया। वे भोले यात्री नरसी के पास पहुंचे और उनसे हुंडी के लिए प्रार्थना करने लगे। नरसी ने उन्हें बहुत समझाया कि उनके पास कुछ भी नहीं है, परन्तु वे माने ही नहीं। समझे कि महेताजी टालना चाहते हैं। आखिर नरसी को लाचार होना पड़ा। पर वह चिट्ठी लिखते तो किसके नाम लिखते? द्वारिका में श्रीकृष्ण को छोड़कर उनका और कौन बैठा था! सो उन्होंने उन्हीं के नाम (शामला गिरधारी ) हुंडी लिख दी। यात्री बड़ी श्रद्धा से हुंडी लेकर चले गये और इधर नरसी चंग बजा-बजाकर 'मारी हुंडी सिकारी महाराज रे, शामला गिरिधारी।' गाने लगे। यात्री द्वारिका पहुंचकर सेठ शामला गिरधारी को ढूंढते-ढूंढ़ते थक गये, पर उन्हें इस नाम का व्यक्ति न मिला। बेचारे निराश हो गये। इतने में उन्हें शामला सेठ मिल गये। कहते हैं कि स्वयं द्वारिकाधीश ने ही शामला बनकर नरसी की बात रख ली थी।

नरसी महेता कृष्ण-भक्ति का प्रचार करते थे। उनके भक्तों की संख्या बढ़ रही थी और उनके भजन-कीर्तन में लोगों की भीड़ होने लगी थी। स्त्रियां भी उसमें जाती थीं और भजन-कीर्तन में भाग लेती थीं। कभी-कभी कीर्तन करते-करते नरसी थक जाते और भाव-विभोर होकर बेहाश भी हो जाते थे। स्त्रियां उन्हें पानी पिलातीं, सहारा देतीं। कीर्तन में स्त्रियों का इस प्रकार सेवा करना उनके पतियों तथा संबंधियों को पसंद नहीं आया।

'रा' मांडलिक उस समय जूनागढ़ के राजा थे। उनके पास नरसी के विरुद्ध शिकायतें पहुंचने लगीं। 'रा' मांडलिक शिकायतें सुनते, परन्तु टाल जाते। नरसी भगत एक सच्चे भगत हैं और श्रीकृष्ण स्वयं उन्हें दर्शन देकर उनके काम कर देते हैं, ये बातें भी उनके कानों तक पहुंची थीं। इसलिए वह नरसी भगत के बारे में कुछ भी निश्चय नहीं कर पाते थे। फिर भी राजा ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। राजमहल में विष्णु का मंदिर था। राजा ने आज्ञा दी कि उस मंदिर के सभा-मंडप में नरसी बैठें और भजन-कीर्तन करें। मंदिर के भीतरी भाग में, जहां मूर्ति थी, ताला लगा रहेगा और चौकी-पहरा रहेगा। यदि नरसी भगत के कीर्तन से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान अपने गले की माला सबेरे तक उनके गले में डाल देंगे तो राजा उनको सच्चा भगत मानेंगे। जब तक यह परीक्षा पूरी नहीं हो जायेगी, नरसी महल के बाहर न जा सकेंगे। भक्तराज बड़ी कठिनाई में पड़े। फिर भी वह मंदिर के सभा-मंडप में बैठकर कीर्तन करने लगे। दुर्भाग्य से उनका प्रिय राग 'केदारा', जिसको उनके मुख से सुनकर भगवान प्रसन्न होते थे और उनके गाने के साथ अपनी बंसी के सुर मिलाने लगते थे, किसी सेठ के यहां गिरवी रखा हुआ था।

कहते हैं, एक दिन उनके यहां कुछ साधु लोग आ पहुंचे। कीर्तन शुरू हुआ; परन्तु घर आये साधुओं को भोजन भी तो कराना चाहिए। घर में कुछ भी न था। इसलिए कुछ रुपयों की दरकार थी। नरसी पुराने परिचित महाजन के यहां पहुंचे, परंतु वह बिना कुछ रखे उधार देने की तैयार न था। उनके पास था क्या, जो रखते! कुछ भी तो नहीं था। आखिर उन्हें अपने 'केदारा' की बात याद आई। सेठ भी जानते थे कि 'केदारा' के बिना नरसी का काम चलने का नहीं। उसने लिखा लिया कि जब तक वे उसका कर्ज न चुका देंगे, 'केदारा' नहीं गायेंगे। इस प्रकार रुपया लेकर उन्होंने उस दिन साधु-संतों को भरपेट भोजन कराया।

भगवान को प्रसन्न करने के लिए 'केदारा' गाना चाहिए और 'केदारा' वह गा नहीं सकते थे। बड़ी चिंता में पड़े और अपने भगवान को कहने  लगे कि कैसी बेबसी की हालत में डाल दिया है। आख़िर भगवान को ही नरसी की चिंता करनी पड़ी। वह 'केदारा' महाजन के यहां से छुड़ा लाये और नरसी ने उसे गाकर भगवान की स्तुति की। भगवान प्रसन्न हुए और सवेरा होते-होते भगवान विष्णु की मूर्ति के गले की माला नरसी के गले में प्रसाद रूप बनकर शोभा देने लगी।

नरसी बड़े सरल थे। नम्रता की मूर्ति थे। किसी के भी भले-बुरे से उन्हें कोई सरोकार न था। संसार से विरक्त थे, परंतु दिल बड़ा कोमल था। ऊंच-नीच का भाव उनके मन में कभी नहीं आया। वह ब्रह्म और माया की 'अखंड रासलीला' के भावों को अपनी मधुर वाणी में सदा गाते थे और कृष्ण-भक्ति का प्रचार करते थे। उन्होंने ब्रह्म और माया का भेद नहीं किया। वह कहते थे, "ब्रह्म लटकां करे ब्रह्मपासे" - माया भी ब्रह्म का ही रूप है। सच यह है कि राधाकृष्ण एक रूप हैं। उनमें कोई खास भेद नहीं। ब्रह्मलीला अथवा राधा-कृष्ण का जो अखंड रास चल रहा है, उसी से सारी दुनिया का यह खेल बना हुआ है। बिना जीव के राधा-कृष्ण या ब्रह्ममाया का मिलन या उनकी एकता का अनुभव कहां और कैसे किया जा सकता है? माया में फंसे अज्ञानी जीवों की बात दूसरी है। जो भक्त हैं, वे अपनी सच्ची स्थिति का अनुभव करते हैं, क्योंकि उनका अंत:करण निर्मल होता है, पवित्र होता है। नरसी ऐसे ही भक्त थे, ज्ञानी थे। भगवान की सेवा और भजन-कीर्तन करते-करते अंत में वह उन्हीं के स्वरूप में मिल गए।

गांधीजी अछूतों को 'हरिजन' कहते थे, परन्तु अछूतों को इस नाम से पुकारने वाले सबसे पहले आदमी नरसी थे। नरसी का यह भजन गांधीजी अपनी प्रार्थना में प्राय: सुनाया करते थे:

वैष्णवजन तो तेने कहीये, जे पीड़ पराई जाणे रे,
पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे।
सकल लोकमां सहने वंदे, निंदा न करे केनी रे,
वाच काछ मन निश्चल राखे, धन-धन जननी तेनी रे।
समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे,
जिह्वा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे।
मोह माया व्यापे नहिं जेने, दृढ़ वैराग्य जैना मनमां रे,
रामनामशुं ताली लागी, सकल तीरथ तेना मनमां रे।
वणलोभी ने कपट-रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे,
भणे नरसैयो तेनुं दर्शन करतां कुंल एकोतेरे तार्या रे।

भावार्थ:  वैष्णवजन वही है, जो दूसरे की पीडा को अनुभव करता है। दूसरे के दु:खों को देखकर उस पर उपकार तो करता है, पर मन में अभिमान नहीं रखता। सबकी वंदना करता है और किसी की निंदा नहीं करता। जो अपने मन, वाणी और ब्रह्मचर्य को दृढ़ रखता है, उसकी मात धन्य है! जो समदृष्टि है, तृष्णा-त्यागी है और परस्त्री को माता के समान समझता है, जो झूठ नहीं बोलता, दूसरे के धन का स्पर्श नहीं करता, जिसे मोह-माया नहीं भुला सकती, जिसके मन में दृढ़ वैराग्य है और जिसको राम-नाम की धुन लगी है, उसके तन में सारे तीर्थों का वास है। जो लोभ-रहित है, जिसके मन में कपट नहीं है और जिसने काम-क्रोध का त्याग किया है, नरसी महेता कहते हैं ऐसे जन के दर्शन से इकहत्तर पीढ़ियां तर जाती हैं।

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